Book Title: Tirthankar Ek Anushilan
Author(s): Purnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publisher: Purnapragnashreeji, Himanshu Jain

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Page 264
________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 88 243 : प्रार्थना : जय वीयराय! जग गुरु! होऊ ममं तुह पभावओ भयवं। भव-निव्वेओ मग्गाणुसारिआ इट्ठफल-सिद्धी॥1॥ लोग-विरुद्ध-च्चाओ, गुरुजण-पूआ परत्थकरणं च। सुहगुरु जोगो तव्वयण-सेवणा अभवमखंडा॥2॥ वारिज्जइ जइ वि नियाण-बंधण वीयराय! तुह समये। तह वि मम हुज्ज सेवा, भवे भवे तुम्ह चलणाणं॥3॥ दुक्ख-खओ कम्म-खओ, समाहिमरणं च बोहिलाभो अ। संपज्जउ मह एअं, तुह नाह। पणाम-करणेणं ॥4॥ . सर्व-मंगल-मांगल्यं, सर्व-कल्याण-कारणम् । प्रधानं सर्व-धर्माणां, जैनं जयति शासनम् ॥5॥ हे वीतराग प्रभो! हे जगद्-गुरु! आपकी जय हो। हे भगवन् ! आपके प्रभाव से मुझे भवनिर्वेद (संसार के प्रति वैराग्य) उत्पन्न हो, मार्गानुसारिता (मोक्ष मार्ग पर चलने की शक्ति) प्राप्त हो और इष्टफलसिद्धि हो, जिससे मैं धर्म की आराधना सरल भाव से कर सकूँ॥1॥ . हे प्रभो! मेरा मन, लोकनिन्दा हो ऐसा कोई भी कार्य करने को प्रवृत्त न हो, धर्माचार्य, माता-पितादि वडिल जनों के प्रति पूर्ण आदर का अनुभव करे और दूसरों का भला (परार्थकरण) करने को तत्पर बने। मुझे सद्गुरु का योग मिले तथा उनकी आज्ञानुसार चलने की शक्ति प्राप्त हो। यह सब जहाँ तक मुझे संसार में परिभ्रमण करना पडे, वहाँ तक अखंड रीति से प्राप्त हो॥2॥ हे वीतराग! यद्यपि आपके प्रवचन में निदान बंधन यानी फल की याचना का निषेध है, फिर भी मैं ऐसी इच्छा करता हूँ कि प्रत्येक भव में आपके चरणों की उपासना करने का योग मुझे प्राप्त हो॥3॥ हे नाथ! आपको प्रणाम करने से दुखों का नाश हो, कर्मों का नाश हो, सम्यक्त्व (बोधिलाभ) मिले और समाधि व शान्तिपूर्वक मरण हो, ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो॥4॥ सर्व मंगलों का मंगलरूप, सर्व कल्याणों का कारणरूप और सर्वधर्मों में श्रेष्ठ, ऐसा जैन शासन जय को प्राप्त होता रहे॥5॥ यदि अपने से अधिक गुणों वाला अथवा अपने समान गुणों वाला निपुण साथी न मिले, तो पापों का वर्जन करता हुआ तथा काम-भोगों में अनासक्त रहता हुआ अकेला ही विचरण करे। - उत्तराध्ययन (32/5)

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