Book Title: Tilakmanjari Me Kavya Saundarya
Author(s): Vijay Garg
Publisher: Bharatiya Vidya Prakashan2017

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Page 218
________________ 194 तिलकमञ्जरी में वक्रोक्ति का नाश करते हैं। यहाँ भगवान् शिव के पर्याय 'महाभैरव' का प्रयोग वाच्यार्थ को अत्यधिक पुष्ट कर रहा है। अङ्गीकृतश्चायं नायकः। किंतु तिष्ठतु तावद्यावदहमिहस्था। स्वस्थानमुपगता तु काञ्चीमध्यमागतं ग्रहीष्याम्येनम्। पृ. 288 यह पर्याय वक्रता का अतिसुन्दर उदाहरण है। समरविकार से पीड़ित मलयसुन्दरी समरकेतु के प्रणय निवेदन को स्वीकार करना चाहती है परन्तु लज्जावश वह कुछ नहीं कह पाती। उसी समय तपनवेग आकर उसे नृत्यावसर पर काञ्ची से गिरे लाल माणिक्य को ग्रहण करने के लिए कहता है। तब अवसर प्राप्त कर मलयसुन्दरी कहती है कि यह नायक स्वीकृत कर लिया गया है। अपने स्थान काञ्ची के मध्य पहुँचने पर इसे ग्रहण करूँगी। यहाँ 'काञ्ची' पयार्य का काञ्ची नगरी और करघनी के अर्थ में श्लिष्ट प्रयोग वाच्यार्थ को रमणीय चमत्कार से चमत्कृत कर रहा है। यहाँ पर तपनवेग के लिए काञ्ची का अर्थ करघनी है तथा समरकेतु के लिए काञ्ची नगरी है। शेषे सेवाविशेषं न जानन्ति द्विजिह्वतः। यान्तो हीनकुलाः किं ते न लज्जन्ते मनीषिणाम्॥" प्रकृत पद्य में महाकवि धनपाल दुर्जनों की निन्दा करते हुए कहते हैं - जो दुर्जन सज्जनों की विशिष्ट सेवा विधि को नहीं जानते, वे नीचकुल वाले क्या विद्वानों के मध्य लज्जित नहीं होते अथवा दो जीभों को धारण करने वाले जो सर्प, शेषनाग की विशिष्ट-सेवाविधि को नहीं जानते, वे मनीषियों के मध्य क्या लज्जित नहीं होते। उक्त श्लोक में 'द्विजिह्वत:' का अर्थ सर्प और दुर्जन से है। द्विजिह्वता अर्थात् दो जीभ वाले। जो सामने प्रशंसा करे तथा परोक्ष में निन्दा करे वह दो जीभ वाला अर्थात् दुर्जन कहलाता है। यहाँ श्लिष्ट पर्याय अपने वैचित्र्य के स्पर्श से वाच्यार्थ को अलंकृत कर रहा है। 56. ति. म., भूमिका पद्य 10

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