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आज कल भी उनके साधु भांगकी ठंडाई लेते हुए, बहुतसे लोगोंके दखेनेमें आते हैं।)
देखिये, भीखमजी, अपनी बनाई हुइ अनुकंपाके रासकी प्रथम ढालमें लिखते हैं:___ 'साधांने लबध न फोरणाजी, सूत्र भगोती मांय ।' - बिलकुल झूठ बात है। साधुने लब्धि नहीं फोरना, ऐसा भगवती सूत्रमें कहा ही नहीं। हां, यह जरूर कहा है कि-'वैक्रियलब्धि साधु फोरवे, और पश्चात् आलोचना न करे, तो वह विराधक है।' और .यही बात, तेरापंथीके पूज्य जीतमल्लजीने अपने बनाए हुए प्रश्नोत्तरके ६ पेजमें लिखी है कि-'भगवती श०-३ उ०४ वक्रियलवधि फोरे तिणन इम कह्यौ बीना आलोया मरे तेहने अराधक (आराधक नहीं विराधक चाहिये) कह्यौ ३।" इन्ही जीतमलजीने हितशिक्षाके गोशालाधिकारमें लिखा है:
" आहारादिक लब्धिफोडवे, कह्यो विराधक ताहि ।
भगवती तिजा शतक, तुर्य उद्देशक माहि" ।। ९७ ॥ .. जीतमल्लजीने भी यहाँपर भीखमकी तरह गप्पें ही मारी हैं अपने
ही बनाये हुए प्रश्नोत्तरमें और इस गोशालाधिकारमें परस्पर कैसा विरोधी लिख मारा है, इसको पाठक देखें । भगवतीके ३ शतक, ४ उद्देशे में 'आहारक' लब्धिका नाम नहीं है, वैक्रियलब्धिका प्रसंग है । और वह भी लब्धि फोरने मात्रसे विराधक नहीं कहा, विना आलोचे मरे तो विराधक कहा । और यह बात जीतमल्लजी अपने प्रश्नोत्तनमें स्वीकार भी करते हैं।
इसी प्रकार, इसी तीसरे शतकके चौथे- उद्देशेका एक पाठ हमने पहिले देही दिया है, जिसमें यह दिखलाया गया है कि