Book Title: Terah Dwip Puja Vidhan
Author(s): Mulchand Kisandas Kapadia
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 280
________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [271 SHASTANSHASSANTOSSANSKIN पञ्चम गिरिते दक्षिण दिशमें, भरतक्षेत्र रुपाचल जान। तापर श्री जिनभवन अनूपम, सुरखग मिल पूर्जे भगवान॥ ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके दक्षिण दिश भरतक्षेत्र संबंधी रूपाचलपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥२॥ अर्घ // चंदन केसर परम सुगंधित, रतनकटोरीमें धर लाय। सब देवनके देव जिनेश्वर, पूजत चरण कमल सिर नाय॥ ____ पंचम गिरि. // 3 // ॐ ह्रीं. // चंदनं॥ उज्वल अक्षत सरस मनोहर, ताजे धोय धरी भर थार। श्री जिनराज चरनके आगे, पुंज देत मन हर्ष अपार॥ __पंचम गिरि. // 4 // ॐ ह्रीं. // अक्षतं॥ वरन वरनके फूल सुवासी, दश दिश वास रही महकाय। श्री जिनमंदिर जाय सु भविजन, जजत जिनेश्वरजीके पाय॥ पंचम गिरि. // 5 // ॐ ह्रीं. // पुष्पं // बावर घेवर मोदक खाजे, ताजे, तुरत बनाय सु लाय। रसना रंजन सरस कपूरे श्री जिन चरनन देत चढ़ाय॥ पंचम गिरि. // 6 // ॐ ह्रीं. // नैवेद्यं॥ कनक थालमें रतन दीप धर, जगमग जोत होत सुखकार। जजत जिनेश्वरके पदपंकज, है करूणानिधि हमको तार॥ पंचम गिरि. // 7 // ॐ ह्रीं. // दीपं॥ कृश्नागर वरधूप सु दसविध, खेवत श्रीजिन सन्मुख जाय। नये करमनके नाश करनको, पूजत भविजन मन वचकाय॥ पंचम गिरि. 8 // ॐ ह्रीं. // धूपं॥

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