Book Title: Tattva Nirnayprasad
Author(s): Vallabhvijay
Publisher: Amarchand P Parmar

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Page 806
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६९४ तत्त्वनिर्णयप्रासाद तथा (३५) और (३६) इन सूत्रोंमें, और भाष्यमें, जो पक्ष जैनीयोंके तर्फसें किया है, तैसें जैनी मानते नही है, इसवास्ते, अनभ्युपगमसेंही निरस्त हैं. ॥ ३३ ||३४||३५||३६|| इति वेदव्यासशंकरस्वामिकृत जैनमतखंडनस्य खंडनं अद्वैतमतखंडनं जैनमतमंडनं च समाप्तं तत्समाप्तौ च समाप्तेयं वेदव्यासशंकरस्वामिलीला ॥ सत् ॥ अथ इससे आगे जैनमतका संक्षेपसे किंचिन्मात्र स्वरूप लिखते हैं. प्रथम तो आत्माका स्वरूप जानना चाहिये; यह जो आत्मा है, सोही जीव है, यह आत्मा स्वयंभू है, परंतु किसीका रचा हुआ नही, अनादि अनंत है, (५) वर्ण, (५) रस, (२) गंध, (८) स्पर्श, इनकरके रहित है, अरूपी है, आकाशवत्, असंख्यप्रदेशी है. प्रदेश उसको कहते हैं, जो, आत्माका अत्यंत सूक्ष्म अंश, जिसका फिर अन्य अंश न होवे, ऐसे असंख्य अंश कथंचित् भेदाभेदरूपकरके एकस्वरूपमें रहे हैं, तिसका नाम आत्मा है. सर्व आत्मप्रदेश ज्ञानस्वरूप है, परंतु आत्माके एकएक प्रदेशऊपर (१) ज्ञानावरण, (२) दर्शनावरण, (३) सुखदुःखरूपवेदनीय, (४) मोहनीय (५) आयु, (६) नाम, (७) गोत्र, (८) अंतराय, इन आठ कर्मकी अनंत अनंत कर्मणा आच्छादित है, जैसें दर्पणकेऊपर छाया आजाती है. जब ज्ञानावरणादि कमका क्षयोपशम होता है, तब इंद्रिय, और मनोद्वारा आत्माको शब्द, रूप, गंध, रस, स्पर्शका ज्ञान, और मानसिक ज्ञान उत्पन्न होता है. कर्मोंका क्षय, और क्षयोपशमका स्वरूप दे - खना होवे तो, कर्मग्रंथ, कर्मप्रकृति, और नंदिकी बृहट्टीकादिसें देखलेना. इस आत्माके एकएक प्रदेशमें अनंत अनंत शक्तियां है, कोई ज्ञानरूप, कोई दर्शनरूप, कोई अव्याबाधरूप, कोई चारित्ररूप, कोई स्थिररूप, कोई अटलअवगाहनारूप, कोई अनंतशक्तिसामर्थ्यरूप, परंतु कर्म के आवरणसें सर्व शक्तियां लुप्त होरही है; जब सर्व कर्म, आत्मा के साधनद्वारा दूर होते हैं, तब यही आत्मा, परमात्मा, सर्वज्ञ, सिद्ध, बुद्ध, ईश, निरंजन, परमब्रह्मादिरूप होजाता है; तिसहीका नाम मुक्ति है. और जो कुछ For Private And Personal

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