Book Title: Taranvani Samyakvichar Part 1
Author(s): Taranswami
Publisher: Taranswami

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Page 38
________________ : तारण - त्राणी = -[ २९ जे धर्म लीना गुण चेतनेत्वं, ते दुःख हीना जिनशुद्धदृष्टी । संप्रोय तत्व सोई ज्ञान रूपं व्रजति मोक्षं क्षगमेक एत्वं ॥ १६ ॥ शुद्धात्मा के चैतन्य गुण में, जो नर निरन्तर लवलीन रहते । वे विज्ञ ही हैं, जिन शुद्ध दृष्टी, संसार दुख-धार में वे न बहते ।। जीवादि तत्वों का ज्ञान करके, होते स्वरूपस्थ वे आत्म-ध्यानी | कर्मारि-दल का विध्वंस करके, वरते वही वे शिवा-सी भवानी ॥ जो भव्यजीव अपने आपके आत्म धर्म में लीन रहते हुए आत्म गुणों का चितवन करते हैं वे पुरुष संसार के समस्त दुखों से रहित होकर अन्तरात्मा से परमात्मपद पाने के अधिकारी हो जाते 1 शुद्धात्मा से जो प्रकाश प्रगट होता है वह प्रकाश ही उन्हें निर्मल तथा शांत बना देता है। यह प्रकाश तीन रत्नों की जगमगाहट से परिपूर्ण रहता है, अतः ऐसे प्रकाश वाले उस अलौकिक शुद्धात्म तत्व की अर्चना में तुम अपने हृदय की पूर्ण निर्मलता का उपयोग करो, वह तुम्हारी निर्मलता एक क्षण में तुम्हें मुक्ति का दर्शन करा देगी और समय पाकर मुक्तिस्थान में पहुँचा देगी । जे शुद्ध दृष्टी सम्यक्त्व शुद्धं, माला गुणं कंठ हृदय अरुलितं । तत्वार्थ सार्धं च करोति नेत्वं, संसार मुक्तं शिव सौख्य वीर्यं ॥ १७ ॥ जो जो शुद्ध दृष्टी शुद्धात्म-प्रेमी, नित पालते हैं सम्यक्त्व पावन । अपने हृदयस्थल पर धारते हैं, जो यह गुणों की माला सुहावन ॥ बे भव्य जन ही पाते निरन्तर, तत्वार्थ के सार का चारु प्याला । संसार - सागर से पार होकर, पाते वही जीव चिर सौख्य-शाला | 'शुद्धात्म पुरुष सम्यक्त्व का नित प्रति पूर्ण रूप से पालन करते हैं तथा जो अपने कंठ में अध्यात्म मालिका धारण करते हैं वे ही तत्वार्थ की उस माधुरी का पान करने में समर्थ हो पाते है और वे ही जीव संसार सागर से पार होकर मुक्तिशाला में जाकर विराजमान होते हैं । शुद्ध दृष्टी

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