Book Title: Swatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Author(s): Kanaknandi Acharya
Publisher: Dharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
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सौधर्म आदि कल्प के नामकरण साहचर्य से या स्वभाव से इन्द्र के नाम से भी हुआ है। जैसे सुधर्मासभा जिस कल्प में है उस कल्प का नाम सौधर्म कल्प है। सौधर्म कल्प के साहचर्य से इन्द्र भी सौधर्म कहा जाता है। इसी प्रकार आगे भी जान लेना चाहिए। जो कुछ विशेषता है उसे आगे लिख रहे हैं:
___ लोकाकाश को पुरुषाकार माना है। उस लोकपुरुष की ग्रीवा के स्थानीय होने से ग्रीवा और ग्रीवा में होने वाले ग्रैवेयक विमान हैं और उनका साहचर्य होने से वहाँ वे इन्द्र भी ग्रैवेयक कहलाते हैं। ये नवग्रैवेयक एक के ऊपर एक हैं, व्यवस्थित हैं। सुदर्शन, अमोघ, सुप्रबुद्ध, यशोधर, सुभद्र, सुविशाल, सुमन, सौमनस और प्रियंकर ये इनके नाम हैं। अभ्युदय के विघ्नों के कारणों को जीत लेने से विजयादि की भी सार्थक संज्ञा है। सर्व अर्थों की सिद्धि हो जाने से सर्वार्थसिद्धि यह भी सार्थक नाम है। अर्थात् विजय वैजयन्त जयन्त और अपराजित वाले दो तीन भव से अधिक संसार में परिभ्रमण नहीं करेंगे, ये सभी सम्यग्दृष्टि हैं अत: संसार पर विजय प्राप्त कर लेने से वा कर्मों के द्वारा जीते नहीं जाने से इनका यह नाम सार्थक है। सर्व अर्थों की सिद्धि हो गई, इसमें रहने वाले. देव एक भव-अवतारी है, इसलिये इसका नाम सर्वार्थसिद्धि है। इनके साहचर्य से इनके इन्द्रों का नाम भी विजयादि है। प्रश्न - सर्वार्थसिद्धि को पृथक् ग्रहण क्यों किया? इन सब के साथ द्वन्द्व
समास क्यों नहीं किया गया? . उत्तर - स्थिति आदि विशेष का ज्ञान कराने के लिए सर्वार्थसिद्धि का पृथक्
ग्रहण किया है। विजयादि चार विमानों में जघन्य स्थिति बत्तीस सागर से कुछ अधिक है और उत्कृष्ट तैंतीस सागरोपम है, परन्तु ‘सर्वार्थसिद्धि में जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति (आयु) तैंतीस सागरोपम है। अत: इस विशेषता को बताने के लिए विजयादि से पृथक्
सर्वार्थसिद्धि का ग्रहण किया गया है। कल्पातीत्व का ज्ञान कराने के लिए ग्रैवेयकादि का पृथक् ग्रहण किया है। सौधर्मादि अच्युत पर्यन्त बारह कल्प हैं, उनसे अन्य स्वर्ग कल्पातीत है।
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