Book Title: Swami Dayanand aur Jain Dharm
Author(s): Hansraj Shastri
Publisher: Hansraj Shastri

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Page 145
________________ - - १३७ दे डाली है । सिद्धान्त कौमुदीका आदर करनेवालोंको अब इस बात पर विचार करना चाहिए कि यदि कोई वैयाकरण हररोज सुबह उठकर विरजानन्दकी मूर्तिपर गिनकर पचास दफे उसी तरह के सम्मान पुष्प चढ़ावे तो उसे भी ऋषिकी पदवी मिलनी चाहिए या नहीं ? आर्यसमाजके नायकोंको मुनासिब है कि वे दूसरोंका आदर करना सीखें और इस रूपमें इस पुस्तकका प्रचार रोकदें । आर्य समाजियोंके गुरुके गुरुकी इस लीलाके विज्ञापन से हानिके सिवा लाभ नहीं। जिस “धर्म वीर" ने इस लीलाकी झांकी दिखाई है उसकी वीर और धार्मिक आत्माको भगवान् सद्गति दे !" [स० भा १५ खं २ संख्या ३ ] * * नोट-बहुधा लोगोंका मत है कि वर्तमान आर्य समाजके शिक्षित विभागमें विचार संकीर्णता और अंध श्रद्धालुता अन्य सांप्रदायिक पुरुषों की अपेक्षा कुछ कम है । हम भी इस विचारमें अधिकांश सहमत थे, परंतु विशेष परामर्शसे हमारा उक्त विचार भ्रममूलक ही निकला । मतांधता और व्यक्तिगत रागांधताने वर्तमान आर्यदलके शिक्षित विभागको भी अशिक्षितोंकी तरह अपना दास बनाये विना नहीं छोड़ा ! कितनेक सामयिक संयोगोंसे यह बात स्पष्ट जान पड़ती है। उदाहरण के लिए उक्त संपादकीय समालोचना ही ले लीजिए। हमें खेद है कि, उक्त निष्पक्ष समालोचनाको देखकर भी वर्तमान आर्यदलके नायकोंके क्रोधकी मात्रा इतनी बढ़ गई कि, अनेक समाजी पलीम कोलाहल मचाने के सिवा कितनांक बाल और वृद्ध सभाऑने उक्त आलोचनाके विषयमें कई एक प्रस्ताव भी पास कर डाले ! जिनसे मध्यप्रांत बुलन्द शहरकी आर्य प्रतिनिधि सभाके पास किये हुए एक प्रस्ताव को पाटकोंके अवलोकनार्थ हम यहां पर भी उद्धृत कर देते हैं। " आर्य ग्रंथकारोंसे सविनय निवेदन है कि वे अपनी लिखी " पूस्तकोंको सरस्वती संपादक पंडित महावीरप्रसादजी द्विवेदीके

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