Book Title: Sutrakritanga Sutra Part 01
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 326
________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते चतुर्थाध्ययने द्वितीयोद्देशकः गाथा १६ स्त्रीपरिज्ञाध्ययनम् पुत्रदौहृदः-अन्तर्वर्ती फलादावभिलाषविशेषस्तस्मै-तत्सम्पादनार्थं स्त्रीणां पुरुषाः स्ववशीकृता 'दासा इव' क्रयक्रीता इव 'आज्ञाप्या' आज्ञापनीया भवन्ति, यथा दासा अलज्जितैर्योग्यत्वादाज्ञाप्यन्ते एवं तेऽपि वराकाः स्नेहपाशावपाशिता विषयार्थिनः स्त्रीभिः संसारावतरणवीथीभिरादिश्यन्त इति ॥१५॥ अन्यच्च - टीकार्थ - बैठने के योग्य एक मँचिया लाओ, उसी मँचिया का विशेषण बतलाते हैं- जिसमें नये सूत लगे हो ऐसी मॅचिया होनी चाहिए । यहाँ सूता की मँचिया उपलक्षण है, इसलिए चमड़े की बनी हुई मैंचिया लाओ। तथा मुञ्ज की बनी हुई अथवा काठ की बनी हुई पादुका (खड़ाऊं) इधर-उधर घूमने के लिए लाओ, क्योंकि मैं खुले पैर पृथिवी पर एक पैर भी नहीं दे सकती हूँ। अथवा पुत्र गर्भ में होने पर जो स्त्री को फल आदि खाने की इच्छा उत्पन्न होती है, उसे पुत्रदोहद कहते हैं, उसको सम्पादन करने के लिए स्त्रियां खरीदे हुए दास के समान पुरुषों पर आज्ञा करती हैं । जैसे दास के ऊपर निर्लज्ज होकर लोग आज्ञा करते हैं, इसी तरह स्नेहरूपी पाश से बँधे हुए विषयार्थी बिचारे पुरुषों पर संसार में उतरने के लिए मार्ग स्वरूप स्त्रियाँ आज्ञा चलाती है ॥१५॥ जाए फले समुप्पन्ने, गेण्हसु वा णं अहवा जहाहि । अह पुत्तपोसिणो एगे, भारवहा हवंति उट्टा वा ॥१६॥ छाया - नाते फले समुत्प, गृहाणेनमथवा नहाहि । अथ पुत्रपोषिण एके भारवहाः भवन्ति उष्ट्रा इव ॥ अन्वयार्थ - (जाए फले समुष्पन्ने) पुत्र उत्पन्न होना गृहस्थता का फल है, उसके होने पर (गण्हसु वा णं जहाहि) स्त्री कुपित होकर कहती है कि- इस पुत्र को गोद में लो अथवा छोड़ दो (अह एगे पुत्तपोसिणो उट्टा वा भारवहा हवंति) कोई कोई पुरुष पुत्र का पोषण करने के लिए ऊंट की तरह भार वहन करते हैं। भावार्थ - पुत्र जन्म होना गृहस्थता का फल है, उस फल के उत्पन्न होने पर स्त्री कुपित होकर अपने पति से कहती है कि- इस लड़के को गोद में लो अथवा छोड़ दो । कोई-कोई पुत्र के पोषण में आसक्त पुरुष ऊंट की तरह भार वहन करते हैं। ___टीका - जात:-पुत्रः स एव फलं गृहस्थानां, तथाहि-पुरुषाणां कामभोगाः फलं तेषामपि फलं-प्रधानकार्य पुत्रजन्मेति, तदुक्तम्"इदं तत्स्नेहसर्वस्वं, सममान्यदरिद्रयोः । अचन्दनमनौशीरं, हृदयस्यानुलेपनम् ||१|| “यत्तच्छपनिकेत्युक्तं, बालेनाव्यक्तभाषिणा । हित्वा सांख्यं च योगं च, तन्मे मनसि वर्तते ॥२॥" यथा 'लोके पुत्रसामुाखं नाम, द्वितीयं सुमाखमात्मनः' इत्यादि, तदेवं पुत्रः पुरुषाणां परमाभ्युदयकारणं तस्मिन् 'समुत्पन्ने' जाते तदुद्देशेन या विडम्बनाः पुरुषाणां भवन्ति ता दर्शयति-अमुं दारकं गृहाण त्वम्' अहं तु कर्माक्षणिका न मे ग्रहणावसरोऽस्ति, अथ चैनं 'जहाहि' परित्यज नाहमस्य वार्तामपि पृच्छामि एवं कुपिता सती ब्रूते, मयाऽयं नव मासानुदरेणोढः, त्वं पुनरुत्सङ्गेनाप्युद्वहन् स्तोकमपि कालमुद्विजस, इति, दासदृष्टान्तस्त्वादेशदानेनैव साम्यं भजते, नादेशनिष्पादनेन, तथाहि-दासो भयादुद्विजन्नादेशं विधत्ते, स तु स्त्रीवशगोऽनुग्रहं मन्यमानो मुदितश्च तदादेशं विधत्ते, तथा चोक्तम्“यदेव रोचते महां, तदेव कुरुते प्रिया । इति वेत्ति न जानाति, तत्प्रियं यत्करोत्यसौ ||१|| ददाति प्रार्थितः प्राणान्, मातरं हन्ति तत्कृते । किं न दद्यात् न किं कुर्यात्खीभिरभ्यर्थितो नरः ||२|| ददाति शौचपानीयं, पादौ प्रक्षालयत्यपि | श्लेष्माणमपि गृह्णाति, खीणां वशगतो नरः ||३||" ___ तदेवं पुत्रनिमित्तमन्यद्वा यत्किञ्चिन्निमित्तमुद्दिश्य दासमिवादिशन्ति, अथ तेऽपि पुत्रान् पोषितुं शीलं येषां ते पुत्रपोषिण उपलक्षणार्थत्वाच्चास्य सर्वादेशकारिणः 'एके' केचन मोहोदये वर्तमानाः स्त्रीणां निर्देशवर्तिनोऽपहस्तितै1. अन्तर्वनी प्राग्मुद्रिते, फलस्य पुत्रवाचिता उपरिष्टात्स्पष्टा । 2. एतत् श्लोकद्वयमपि व्रतभ्रष्टेन धर्मकीर्तिना- भाषितमिति वि.प. २८६

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