Book Title: Sulabh Charitrani Part 02
Author(s): Vajrasenvijay
Publisher: Bhadrankar Prakashan

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Page 32
________________ १९१ श्री सिंहश्रेष्ठिचरित्रम् त्वदीयवदनन्यस्तनेत्रं वेत्रभृतां वरः। कदाप्युदारसदसं तं महीशं व्यजिज्ञपत् ॥१०॥ अन्वयः- त्वदीयवदनन्यस्तनेत्रम् उदार सदसं तं महीशं कदापि वेत्रेभृतांवरः व्यजिज्ञपत् ॥१०॥ देव ! दिव्याकृतिभरि कोऽप्यस्ति नरपुङ्गवः । चक्षुर्भवन्मुखाम्भोजे भ्रमरीकर्तुमुत्सुकः ॥११॥ अन्वयः- (हे) देव ! भवन्मुखाम्भोजे चक्षुः भ्रमरीकर्तुम् उत्सुकः कोऽपि दिव्याकृतिः नर-पुङ्गवः द्वारि अस्ति ॥११॥ अथैष वेत्रभृद्भपभ्रूपल्लवकसंज्ञया । आशु प्रवेशयामास तं पुमांसं सभाभुवि ॥११॥ अन्वयः- अथ एष वेत्रभृद् भूपधूपल्लवकसंज्ञया तं पुमांसं सभाभुवि आशु प्रवेशयामास ॥१२॥ कृती कृतनमस्कारः संनिविष्टोऽथ विष्टरे ।। वचःसुधाभिः स्नपयामास भूवासवश्रवः ॥१३॥ अन्वयः- अथ कृतनमस्कारः कृती विष्टरे संनिविष्टः वचःसुधाभिः भूवासवश्रवः स्नपयामास ॥१३॥ जानासि जगतीनाथ विरोधिक्वाथकृन्महाः । श्रीनागचन्द्र इत्यस्ति पुरे नागपुरे नृपः ॥१४॥ अन्वयः- (हे) जगतीनाथ ! जानासि? नागपुरे पुरे विरोधि क्वाथकृत् महाः श्रीनागचन्द्र इति नृपः अस्ति ॥१४॥ १. सदस्-सभा, २. वेत्रभृत्-छडीदार, वेत्रभृतां वरः छडीदारोमां श्रेष्ठ । ३. श्रवः-श्रवस्कान । ४. विरोधिन्-विरोधी शत्रु । ५. क्वाथकृन्महाः-महः-शत्रुओने उकाळनार छे तेज जेनुं एवो।

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