Book Title: Subodh Jain Pathmala Part 01
Author(s): Parasmuni
Publisher: Sthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur

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Page 278
________________ २५२ ] जैन सुवोध पाठमाला-भाग १ देवी या मत्र-तत्र के निमित्त की भी आवश्यकता हो। यह, सोचकर भी मैं अन्य देवो को नमस्कार करता हैं और अन्य मत्रो का स्मरण करता हूँ। पुत्र होने से तुम पर चढा हुया बाँझ का कलक भो धुल जायगा।' सुलसा ने कहा-'नाथ' आपका यह कहना असत्य नही है, पर मैं इसके लिए मिथ्यात्व की प्रवृत्ति अपनाना नही चाहती। यदि मान लो कि, पूर्व मे हमारे कमाये हुए पुण्य नही है, तो दोनो ओर हमारी हानि ही है। पुत्र की प्राप्ति भी नही होगी और मिथ्यात्व-प्रवृत्ति का पाप भी पल्ले बँध जायगा। यदि आपको पुत्र की ही अधिक अभिलाषा हो, तो आप अन्य स्त्री से लग्न कर लीजिए, पर मिथ्यात्व की प्रवृत्ति का सेवन मत कीजिए। लोग जो मुझे बॉझ कहते है, इसका आप कोई विचार मत कीजिए। जो सम्यक्त्व-दृढता का महत्व जानते है, वे तो हमारी प्रशसा ही करेगे, निन्दा नही करेगे तथा जो. सम्यक्त्व-दृढता का महत्व नही जानते, उनकी वात हमे सुनना ही क्यो चाहिए ? नाग ने कहा-'सुलसे । मैं तुम्हारा कहा मानकर मिथ्यात्व की प्रवृत्ति छोड देता हूँ, पर मैं तुम्हारे लिए सौक लाऊँ—यह कभी नही हो सकता। मैं पुत्र चाहता हूँ, पर तुम्हारी कुंख से उत्पन्न पुत्र चाहता हूँ। मेरा तुम्ही पर प्रेम है। मैं तुम्हे अपने जीवन से भिन्न नही कर सकता।' सुलसा ने कहा-'धन्य है, आर्यपुत्र ! आपने मिथ्यात्वप्रवृत्ति छोडने का अच्छा निश्चय किया। धर्म पर दृढ रहने से , अशुभ कर्मो का क्षय होता है, वे शुभकर्म के रूप मे बदलते हैं. और नये पुण्यो की महान् वृद्धि होती है। कभी शोघ्र, तो कभी विलम्ब से अनिष्ट का विनाश होता है, और इष्ट-प्राप्ति होती है।

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