Book Title: Studies in Jainism
Author(s): M P Marathe, Meena A Kelkar, P P Gokhle
Publisher: Indian Philosophical Quarterly Publication Puna
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प्रमाणों में नयों का भेद
209 द्वारा वस्तु के जिस एक देश का प्रकाशन होता है - वह शुक्ति में रजत के समान मिथ्या नहीं है, वह सत्य है । सत्य वस्तु का प्रकाशक होने के कारण नय को भी प्रमाण कहा जाना चाहिये । एक दीर्घ ज्ञान के अर्थात् अनेक अर्थों के प्रकाशक ज्ञान के पट आदि के समान अवयव नहीं हो सकते। परंतु प्रकाशित वस्तुओं के अनेक अंश होने के कारण ज्ञान को भी अंशीके रूप में कहा जा सकता है। अवश्य ही ज्ञान मुख्य रूप से अंशी नहीं है। परंतु अनेक अवयवी अर्थों के प्रकाशक होने से ज्ञान का एक अंश यदि एक अर्थ को प्रकाशित करता है, तो दूसरे अर्थ को प्रकाशित करनेवाला ज्ञान एक ज्ञान का अन्य अंश कहा जा सकता है। यदि कोई ज्ञान घट-पट-पुस्तक का प्रकाशक हो, तो पुस्तक के प्रकाशक स्वरूप को ज्ञान का प्रथम अंश, और घट से प्रकाशक अंश को दूसरा अंश और पट के प्रकाशक अंश को तीसरा अंश कहा जा सकता है। एक अंश का प्रकाशक ज्ञान जिस प्रकार प्रमाण है, इस प्रकार अन्य अंशों का प्रकाशक ज्ञान भी प्रमाण है। जो प्रमाण का एकदेश है, वह भी प्रमाण है। एक अंश का प्रकाशक ज्ञान मिथ्या अंश का प्रकाशक नहीं है, इसलिये अप्रमाण नहीं हो सकता। परन्तु सत्य अंश का प्रकाशक होने के कारण, उसके प्रमाण होने में कोई बाधा नहीं आ सकती । नय को अप्रमाण से भिन्न कहना चाहिये । परन्तु उसको प्रमाण से भिन्न कहना उचित नहीं है । वस्तु का एक देश जिस प्रकार वस्तु है, इस प्रकार प्रमाणभूत ज्ञान का अंश भी प्रमाण है।
यह तोह आ नय के प्रमाण अथवा अप्रमाण होने का विचार । अब नय के प्रमाणमय स्वरूप का भी विचार कर लेना चाहिये । प्रमाण शब्द प्रमाण सामान्य का वाचक
जैन तर्क के अनुसार प्रमाणभूत ज्ञान के मति-श्रुत-अवधि-मन:पर्यय और केवल-यह पाँच भेद हैं । जो नयात्मक ज्ञान है उसका स्वरूप इन में से किसके साथ समानता रखता है ? इस पर विचार करना चाहिये । श्री वादिदेवसूरि जी ने नय का लक्षण किया है - वे कहते हैं -- श्रुत नामक प्रमाण से जो अर्थ प्रकाशित है उसके एक अंश को जो प्रकाशित करता है और अन्य अंशों में उदासीन रहता है वह ज्ञाता का अभिप्राय नय है । (स्या. र परि. ७/१ पृ. १०४४)
इस विषय में न्यायविशारद न्यायाचार्य श्री यशोविजयजी उपाध्याय के गंभीर मनन पर ध्यान देना भी आवश्यक प्रतीत होता है । वे तत्त्वार्थाधिगम सूत्र के विवरण में कहते है - नयों के विषय में अनेक प्रकार के विचार प्राचीन आचार्यों ने प्रकट किये है। उनमें से टीकाकारजी के अनुसार जो ज्ञान समस्त नयों के अंशों का प्रकाशक है वह प्रमाण है और अनेक धर्मात्मक वस्तु में कोई एक धर्म का निश्चय नय है और वह नय मिथ्या है। दो में एक की बुद्धि जिस प्रकार मिथ्या है इस प्रकार नय भी मिथ्या है-कहा भी है; 'समस्त नय एकांत रूप से अपने पक्ष का प्रतिपादन करनेवाले मिथ्या
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