Book Title: Srushtivad Ane Ishwar
Author(s): Ratnachandra Maharaj
Publisher: Jain Sahitya Pracharak Samiti

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Page 448
________________ ४०८ સૃષ્ટિવાદ અને ઈશ્વર ईश्वर कर्तृत्व पर चन्द्रसेन जैन वैद्य ने अपनी पुस्तक 'सृष्टिवाद-परीक्षा के पृष्ठ ३ में भी कहा है"कृतार्थस्य विनिर्मित्सा कथमेवास्य युज्यते । अकृतार्थोऽपि न स्पृष्टुं विश्वमीष्टे कुलालवत्" ||७|| अब यह कहो कि तुम्हारा सृष्टिकर्ता ईश्वर कृतार्थ है अथवा अकृतार्थ है ? यदि कृतार्थ है अर्थात् उसे कुछ करना बाकी नहीं रहा, चारों पुरुषार्थों का साधन कर चुका है तो उसका कर्तापना कैसे बनेगा ? वह सृष्टि क्यों बनावेगा ? और यदि अकृतार्थ है अपूर्ण है, उसे कुछ करना बाकी है, तो कुंभकार के समान वह भी सृष्टि को नहीं बना सकेगा क्योंकि कुम्हार भी तो अकृतार्थ है. इसलिये जैसे उससे सृष्टि की रचना नहीं हो सकती है उसी प्रकार से अकृतार्थ ईश्वर से भी नहीं हो सकती है। “ अमूर्तो निष्क्रियो व्यापी कथमेष जगत्सृजेत् । न सिमृक्षापि तस्यास्ति विक्रिया रहितात्मनः" ॥८॥ यदि ईश्वर अमूर्त, निष्क्रिय और सर्वव्यापक है, ऐसा तुम मानते हो, तो वह इस जगत् को कैसे बना सकता है ? क्योंकि जो अमूर्त है, उससे मूर्तिक संसार की रचना नहीं हो सकती है, जो क्रियारहित :है वह सृष्टिरचना रूप क्रिया नहीं कर सकता है, और जो सब में व्यापक है, वह जुदा हुये विना-अव्यापक हुये बिना सृष्टि नहीं बना सकता है। इसके सिवा ईश्वर को तुम विकाररहित कहते हो । और सृष्टि बनाने की इच्छा होना एक प्रकार का विकार हैविभावपरणति है, तो बतलाओ उस निर्विकार परमात्मा के

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