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( ४१२ ) भक्ति की । उनके सत्संग से विशेष धर्म-लाभ को प्राप्त किया।
तदनंतर अपनी माताजी को, भाई को, रानियों को मित्रों को, मंन्त्रियों को साथ लेकर भारी समारोह के साथ कुशस्थल की ओर महाराजा श्रीचन्द्रराज रवाना हुए। हाथी, घोडे, रथ, मनुष्य, सैनिक, बैलों, ऊंटों, पालकियों आदि से उनकी सेना लहराते हुए विशाल समुद्र की तरह शोभा पारही थी। उस सेना के दबाव से शेषनाग विचलित हो उठा । कूर्मराज घबडा उठे । पृथ्वी अंदर को फँसने लगी । दिशाओं के हाथी कराह उठे । पैरों से उडी हुई धूल से आकाश में सूरज ढंक गया । पहाड़ कापसे गये । समुद्रों में यावत् सारे संसार में हलचल मच गई।
.. पहाड़ पर पड़ाव करते हुए महाराजा श्रीचंद्रराज अपने अभीष्ट-स्थान की ओर बढ़ते जा रहे थे । मार्ग में स्थान २ पर कहीं मन्दिर, कहीं धर्मशाला, कहीं किले कहीं प्याउएँ, कहीं नहरें प्रादि नव निर्माण करते और कराते जाते थे । क्रमशः वे कनकपुर पहुंचे। वहां कुछ दिन ठहर कर कल्याणपुर गये । राजा गुणविभ्रम को पहले की तरह पदस्थ किया। उनकी राजकन्या गुणवती