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(५३३) पिताके इन वचनोंसे संतुष्ट हो रत्नसारने शीघ्र द्वार खोला
और जो बात हुई थी वह तथा जो कुछ मनमें थी सो स्पष्ट कह दी । पिताने अत्यन्त विस्मित हो कहा कि, " हे वत्स ! हमारा पुत्र इस सर्वोत्तम अश्वपर बैठकर भूतल पर चिरकाल तक भ्रमण करता रहे और हमको वियोगसे दुःखी करे ।" इस कल्पनासे मैंने आजतक उस अश्वको प्रयत्नके साथ गुप्त रखा, परन्तु अबतो तेरे हाथमें सौंपना ही पडेगा परन्तु तुझे उचित जान पडे वही कर । यह कह पिताने हर्षसे रत्नसारकुमारको उक्त अश्व दे दिया। मांगने पर भी न देना यह प्रीतिके ऊपर अग्नि डालनेके समान है । जैसे निधान मिलनेसे निधनको आनंद होता है, उसी प्रकार अश्वप्राप्तिसे रत्नसारकुमारको बहुत प्रसन्नता हुई। श्रेष्ठवस्तु मिलनेपर किसे आनन्द नहीं होता ? पश्चात् उदयपर्वतपर आये हुए सूर्यके समान वह रत्नजडित सुवर्णकी काठी चढाये हुए उक्त अश्वपर आरूढ हुआ। और वय तथा शीलमें समान सुशोभित अश्वारूढ श्रेष्ठमित्रोंके साथ नगरसे बाहर निकला । जैसे इन्द्र अपने उच्चैःश्रवानामक अश्वको चलाता है उसी तरह वह कुमार उक्त अनुपम अद्वितीय अश्वको मैदानमें फिराने लगा । कुमारने उस अश्वको आक्षेपसे क्रमशः धौरित, वल्गित, प्लुत और उत्तेजित चारों प्रकारकी गतिसे चलाया । पश्चात् शुक्लध्यान जीवको पंचमगति पर ( मुक्ति ) पहुंचाता है, उस समय वह जीव