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सृतीयकाण्डम्
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नानार्थवगेः ३ कलापोबर्ह तूणीर भूषणेषु च संहते ॥१४९।। प्राप्तरूपोऽभिरूपःस्वरूपो बुध मनोज्ञयोः । गोधुग गोष्ठपतिगोपः परीवापस्त्वपां स्थितिः ॥१५०॥ परिच्छदे च पर्युप्तौ विटेंप: पल्लवेऽपि च । शय्याऽद्यालकदारेषु तल्पमाच्छदनाऽन्नयोः ॥१५१॥ कशिपुर्न स्त्रिया मूष्माऽश्रुणीवाष्पं ................
इति पान्ताः । ............................रवर्ण के।
इति फान्ताः । ना कुत्सितेऽन्यवद् रेफेः................ ..................."कम्बुवलय शंखयोः ॥१५२॥
(१) 'कलाप' बर्ह तुणोर भूषण [काञ्ची] संहति में पु० मेदनी कोष की विशेषता है कि चन्द्र विदग्ध व्याकरण में कहा है । (२) 'प्राप्तरूप' अभिरूप स्वरूप बुध और मनोज्ञ में त्रि० । (३) गोपः [गोपाः] गोष्ठपति [गोशाला के स्वामी गोदोग्धा [गाय दूहने वाला गोपाल में पु० । (४) 'परीवाप' जलस्थिति परीच्छद [परिवार] पर्युप्ति में पु० । [५] विटप' स्तम्ब शाखा विस्तार पल्लव [अल्प जलाशय] पु० नपुं, विटाधिप में पुं० । (६) 'तल्प' शय्या भट्टालक दारा में पु० नपुं० । (७) 'किशिपु' आच्छादन अन्न [भक्त में पु० नपुं० । (८) 'बाष्प' ऊ म अश्रु में नपुं० [अमर हैम भी स्पर्शादि ही मानते हैं । गोवर्धनाचार्य ने मेदिनी कोष के आधार पर 'वाष्प पर्याकुलम्' ऐसा अन्तस्थ वकार रक्खा है। इति पान्ता । (९) 'रेफः' रवर्ण में पु०, कुत्सित में त्रि० । इति फान्ता । (१०) कम्बु' वलय गज शम्बूक में पु०,शंख में स्त्री० ।
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