Book Title: Shatpahud Granth
Author(s): Kundakundacharya
Publisher: Babu Surajbhan Vakil

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Page 73
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इस में मांस, हडि, शुक्र, रुधिर, पित्त, आंते जिनमें झरती हुवी अत्यन्त दुर्गन्धि है तथा अपक्कमल मेदा पूति (पषि ) और अपवित्र ( सड़ा हुवा) मल भरा हुवा है। भाव विमुत्तो मुत्तो णय मुत्तो वन्धवाइपित्तेण । इय माविऊण उन्म मु गन्धं अब्भं तरं धीर ।। ४३ ॥ भावविमुक्तो मुक्तः नच मुक्तः बान्धवादिमात्रेण । __इति भावयित्वा उज्झय गन्धमभ्यन्तरं धीर १ ॥ अर्थ-जो भाव ( अन्तरङ्गपरिग्रह ) से छूट गया है वही मुक्त है । कुटम्बी जनों से छूट जाने मात्र से मुक्त नहीं कहते हैं ऐसा विचार कर हे धीर अन्तरङ्ग वासना को (ममत्व को ) त्याग । देहादि चत्तसङ्गो माणकसायेण कलुसिओ धीरो। अत्तावणेण जादो वाहुवली कित्तियं कालं ॥ ४४ ॥ देहादि त्यक्त सङ्गः मानकषायेन कलुषिता धीरः । ___ आतापनेन जातः वाहुवलिः कियन्तं कालम् ।। अर्थ-देव आदि समस्त परिग्रहों से त्याग दिया है ममत्व परिणाम जिसने ऐसा धीर वीर वाहुवली संज्वलन मान कषायकर कलुषित होता हुवा आतापन योग से कितनेही काल व्यतीत करता भया परन्तु सिद्धि को न प्राप्त भया । जव कषाय की कलुषता दूर हुई तब सिद्धि प्राप्त हुई। भावर्थ-श्री ऋषभदेव स्वामी के पुत्र वाहुवलि ने अपने भाई भरत चक्री के साथ युद्ध किये । नेत्रयुद्ध जलयुद्ध और मल्लयुद्ध में बाहुबलि से पराजित होकर भरत ने भाई के मारने को सुदर्शनचक्र चलाया परन्तु वाहुवली चरमशरीरी एकगोत्री थे इससे चक्र उनकी प्रदक्षिणा देकर भरतेश्वर के हस्त में आगया । वाहुवलि ने उसी समय संसार देह और भोगों का स्वरूप जानकर द्वादशानुप्रेक्षाओं का चिन्तवन किया और यह पश्चाताप भी कि मेरे निमित्त से बड़े भाई का तिरस्कार हुवा । पश्चात जिनदीक्षा लेकर एक वर्ष का कायोत्सर्गधारणकर एकान्त बन में ध्यानस्थ हुवे जिनके शरीर पर बेले लिपट गई सो ने घर बना लिया। परन्तु में भरतेश्वर की भूमि For Private And Personal Use Only

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