Book Title: Shantinath Purana
Author(s): Asag Mahakavi, Hiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Lalchand Hirachand Doshi Solapur
View full book text
________________
श्रीशान्तिनाथपुराणम् देहस्यास्य नृणां हेतू स्यातां लोहितरेतसी । किं तन्मयस्य सौन्दर्यमध्याहार्य तु केवलम् ॥६॥ कष्टं तयाविषं बिभ्रमप्यहंयुः२ कलेवरम् । शुभंयुनं भवेज्जातु जीवः फर्ममलीमसः ॥६६॥ मानुष्यकं तथापीदं भवकोटिसुदुर्लभम् । देहिनां धर्महेतुत्वात्सुषर्माणः प्रचक्षते ॥७॥ प्रनेकरामसंकीर्ण 'धनलग्नमपि भणात् । मानुष्यं यौवनं वित्तं नश्यतीन्द्रधनुर्यथा ॥८॥ तडिवुन्मेषतरला मानां किं न संपदः । प्रायुश्च वायुनिषू ततृणबिन्दुपरिप्लवम् ॥६॥ बपुनिसर्गबीभत्सं पूतिगन्धि विनम्बरम् । मलस्यन्दिनवद्वारं किं रम्यं कृमिसंकुलम् ॥१०॥ तथाप्यन्योन्यमुत्पन्नमोहात्कामयमानयोः । वपू रम्यमिवाभाति किं न स्त्रीपुसयोरिदम् ॥१.१॥
मापातमपुरान्मोगान् विप्रयोगाभिपातिनः । दुःप्राप्यानप्यहो पाञ्छन्मूढस्ताम्यति केवलम् ॥१०२॥ यत्सुखायान्यसानिध्यात्तन्म दुःखाय किं भवेत् । तदपायाविति व्यक्तं रागान्धो नावगच्छति ॥१०३।। इन्द्रियार्थगणेनापि सेव्यमानेन सन्ततम् । नात्मनोऽपास्यते तृष्णा सतृष्णः कः सुखायते ॥१०४॥ अनम्यासात्सुदुर्बोध विमुक्तिसुखमङ्गिनाम् । दुःखमेव हि संसारे सुखमित्युपचर्यते ॥१०।।
मनुष्यों के इस शरीर का हेतु रज और वीर्य है इसलिये रज और वीर्य से तन्मय शरीर की सुन्दरता क्या है ? वह तो मात्र काल्पनिक है ॥६५॥ कष्ट इस बात का है कि ऐसे शरीर को धारण करता हमा भी यह कर्ममलिन जीव अहंकार से युक्त होता है शुभभावों से युक्त कभी नहीं होता फिर भी यह मनुष्य का भव धर्म का हेतु होने से प्राणियों के लिये करोड़ों भवों में दुर्लभ है, ऐसा धर्मात्मा जीव कहते हैं ।।१७॥ जिसप्रकार अनेक रङ्गों से युक्त इन्द्र धनुष, घनलग्न-मेघ में संलग्न होने पर भी क्षण भर में नष्ट हो जाता है उसी प्रकार मनुष्य जन्म, यौवन और धन, धनलग्न-अत्यंत निकटस्थ होने पर भी क्षण भर में नष्ट हो जाता है ॥१८॥ मनुष्यों की संपदाएं क्या बिजली की कौंद के समान चञ्चल नहीं हैं ? और आयु वायु से कम्पित तृण की बूद के समान विनश्वर नहीं है ? ॥६६॥ जो स्वभाव से ग्लानि युक्त है, दुर्गन्धमय है, विनश्वर है, जिसके नव द्वार मल को झराते रहते हैं तथा जो कीड़ों से भरा हुआ है ऐसा यह शरीर क्या रमणीय है ? अर्थात् नहीं है ।।१०।। तो भी उत्पन्न हुए मोह से परस्पर-एक दूसरे को चाहने वाले स्त्री पुरुषों के लिये यह शरीर क्या सुन्दर के समान नहीं जान पड़ता ? ।।१०१।। जो प्रारम्भ में मनोहर हैं, पीछे वियोग में डालने वाले हैं तथा कठिनाई से प्राप्त होते हैं ऐसे भोगों की इच्छा करता हुआ यह मूर्ख मनुष्य केवल दुःखी होता है यह आश्चर्य की बात है ।।१०२।। जो अन्य पदार्थों के सांनिध्य से सुख के लिये होता है वह उनके नष्ट हो जाने से दुःख के लिये क्यों न हो, इस स्पष्ट बात को राग से अन्धा मनुष्य नहीं जानता है ।।१०३॥ इन्द्रियों के विषय समूह का निरन्तर सेवन किया जाय तो भी उससे आत्मा की तृष्णा दूर नहीं होती है सो ठीक ही है क्योंकि तृष्णा से युक्त कौन मनुष्य सुखी होता है ? अर्थात् कोई नहीं ॥१०४।। प्राणियों के लिये मोक्ष सुख का अभ्यास नहीं है इसलिए वह दुर्जेय-कठिनाई से जानने योग्य है
१ रजोवीर्ये २ अहंकारयुक्त। ३ शुभोपेतः ४ घनं सान्द्र यथा स्यात्तथा लग्नं पक्षे घने मेघे लग्नं ५ आपाते प्रारम्भे मधुरास्तान् ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org