Book Title: Shantilal Vanmali Sheth Amrut Mahotsav Smarika
Author(s): Dalsukh Malvania
Publisher: Sohanlal Jain Vidya Prasarak Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 84
________________ और कैसे किया, इत्यादि, तब जैनागम सोत्पत्तिक सिद्ध होते शास्त्र की रचना निष्प्रयोजन नहीं किन्तु श्रोता के हैं और इसी दृष्टि से पौरुषेय भी। अतएव कहा गया कि- अभ्युदय और श्रेयस्कर मार्ग का प्रदर्शन कराने की दृष्टि से "तप-नियम-ज्ञानमय वृक्ष के ऊपर आरूढ़ होकर अनन्त ज्ञानी है, यह सर्वसम्मत है। शास्त्र की उपकारता या अनउपकारता केवली भगवान् भव्यजनों के विबोध के लिए ज्ञान-कुसुम की उसके शब्दों पर निर्भर नहीं किन्तु उन शास्त्र-वचन को ग्रहण । वष्टि करते हैं। गणधर अपने बुद्धि पट में उन सफल कुसुमों करने वाले की योग्यता पर भी है। यही कारण है कि एक ही को झेलकर प्रवचन-माला गूंथते हैं।" शास्त्रवचन के नाना और परस्पर विरोधी अर्थ निकाल कर इस प्रकार जैन-आगम के विषय में पौरुषेयता और दार्शनिक लोग नाना मतवाद खड़े कर देते हैं । एक भगवद् अपौरुषेयता का सुन्दर समन्वय सहज ही सिद्ध होता है और गीता या एक ही ब्रह्मसूत्र कितने विरोधी वादों का मूल बना आचार्य श्री हेमचन्द्र का हुआ है ? अतः श्रोता की दृष्टि से किसी एक ग्रंथ को नियमत: 'आदीपमाव्योम-समस्वभावं' सम्यक् या मिथ्या कहना, किसी एक ग्रंथ को ही जिनागम स्याद्वादमुद्राऽनतिभेदि वस्तु कहना भ्रमजनक होगा। यही सोचकर जिनागम के मूल यह विचार चरितार्थ होता है। ध्येय-जीवों की मुक्ति की पूर्ति जिस किसी शास्त्र से होती है, वे सब सम्यक हैं, वे सब आगम हैं-ऐसा व्यापक दृष्टिश्रोता और वक्ता की दृष्टि से व्याख्या बिंदु जैनों ने स्वीकार किया है। इसके अनुसार वेदादि सब जैन-धर्म में बाह्य रूपरंग की अपेक्षा आन्तरिक रूपरंग शास्त्र जैनों को मान्य हैं। जिस जीव की श्रद्धा सम्यक है उसके को अधिक महत्व है। यही कारण है कि जैन-धर्म को सामने कोई भी ग्रंथ आ जाय वह उसका उपयोग मोक्ष-मार्ग अध्यात्मप्रधान धर्मों में उच्च स्थान प्राप्त है। किसी भी वस्तु को प्रशस्त्र बनाने में ही करेगा अतएव उसके लिए सब शास्त्र की अच्छाई की जाँच उसकी आध्यात्मिक योग्यता के नाप प्रामाणिक हैं, सम्यक हैं। किंतु जिस जीव की श्रद्धा ही विपपर ही निर्भर है। यही कारण है कि निश्चय दृष्टि से तथा- रीत है अर्थात् जिसे मुक्ति की कामना ही नहीं, जिसे संसार कथित जैनागम भी मिथ्याश्रुत में गिना जाता है, यदि उसका में ही सुख का भंडार नजर आता है उसके लिए वेदादि तो उपयोग किसी दुष्ट ने अपने दुर्गुणों की वृद्धि में किया हो क्या तथाकथित जैन-आगम भी मिथ्या हैं, अप्रमाण हैं। और वेद भी सम्यक्श्रुत में गिना जाता है, यदि किसी मुमुक्षु आगम की इस व्याख्या में सत्य का आग्रह है, साम्प्रदाने उसका उपयोग मोक्ष-मार्ग को प्रशस्त करने में किया हो। यिक कदाग्रह नहीं।। व्यावहारिक दष्टि से देखा जाय तो भगवान् महावीर के अब वक्ता की दृष्टि से जो आगम की व्याख्या की गई है उपदेश का जो सार-संग्रह हुआ है वही 'जैनागम' हैं। उसका विचार करें-व्यवहार दृष्टि से जितने शास्त्र जैना तात्पर्य यह है कि निश्चय दष्टि से आगम की व्याख्या गमान्तर्गत हैं उनको यह व्याख्या व्याप्त करती है। अर्थात में श्रोता की प्रधानता है और व्यवहार दृष्टि से आगम की जैन लोग वेदादि से पृथक ऐसा जो अपना प्रामाणिक शास्त्र ब्याख्या में वक्ता की प्रधानता है। मानते हैं वे सभी लक्ष्यान्तर्गत हैं। शब्द तो निर्जीव हैं और सभी सांकेतिक अर्थ के प्रति- आगम की सामान्य व्याख्या तो इतनी ही है कि 'आप्त पादन की योग्यता रखने के कारण सर्वार्थक भी। ऐसी स्थिति का कथन आगम है। जैनसम्मत आप्त कौन हैं, इसकी में निश्चय दृष्टि से देखा जाय तो शब्द का प्रामाण्य या व्याख्या में कहा गया है कि-जिसने राग और द्वेष को जीत अप्रामाण्य स्वतः नहीं किन्तु उस शब्द के प्रयोक्ता के गुण या लिया है, ऐसे तीर्थंकर-जिन-सर्वज्ञ भगवान आप्त हैं अर्थात दोष के कारण शब्द में प्रामाण्य या अप्रामाण्य होता है। जिनोपदेश ही जैनागम है। उसमें वक्ता के साक्षात दर्शन इतना ही नहीं किन्तु श्रोता या पाठक के गुण-दोष के कारण और वीतरागता के कारण दोष की संभावना नहीं, पूर्वापर भी प्रामाण्य या अप्रामाण्य का निर्णय करना होगा। अत- विरोध नहीं और युक्तिबाध भी नहीं। अतएव मुख्यरूप से एव यह आवश्यक हो जाता है कि वक्ता और श्रोता-दोनों की जिनों का उपदेश-जैनागम प्रमाण माना जाता है और गौण दष्टि से आगम का विचार किया जाय। जैनों ने इन दोनों रूप से तदनुसारी कुछ शास्त्र । दष्टियों से जो विचार किया है उसे यहाँ दिया जाता है :-- प्रश्न होता है कि, जैनागम के नाम से 'द्वादशांगी' आदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148