________________
130] सर्वार्थसिदौ
[2121 $ 301वर्ण्यत इति वर्णः । शब्दचत इति शब्दः । पर्यायप्राधान्यविवक्षायां भावनिर्देशः । स्पर्धनं स्पर्शः। रसनं रसः। गन्धनं गन्धः । वर्णनं वर्णः । शब्दनं शब्द इति । एषां क्रम इन्द्रियक्रमेणव व्याख्यातःr
8301. अत्राह, यत्तावन्मनोऽनवस्थानादिन्द्रियं न भवतीति प्रत्याख्यातं तत्किमपयोगस्योपकारि उत नेति । तदप्युपकार्येव। तेन विनेन्द्रियाणां विषयेषुस्वप्रयोजनवृत्यभावात् । किञ्चास्यवां सहकारित्वमात्रमेव प्रयोजनमुतान्यदपोत्यत आह
श्रुतमनिन्द्रियस्य ॥21॥ $ 302. श्रुतज्ञानविषयोऽर्थः श्रुतम् । स विवयोऽनिन्द्रियस्य; परिप्राप्तश्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमस्यात्मनः श्रुतार्थेऽनिन्द्रियालम्बनज्ञानप्रवृत्तेः । अथवा श्रुतशानं श्रुतम्, तदनिन्द्रियस्यार्षः प्रयोजनमिति यावत । स्वातन्त्र्यसाध्यमिदं प्रयोजनमनिन्द्रियस्य ।
$ 303. उक्तानामिन्द्रियाणां प्रतिनियतविषयाणां स्वामित्वनिर्देशे कर्तव्ये यत्प्रथम गृहीतं स्पर्शनं तस्य तावत्स्वामित्वावधारणार्थमाह
वनस्पत्यन्तानामेकम् ॥22॥ व्युत्पत्तिके अनुसार ये सब स्पर्शादिक द्रव्य ठहरते हैं। तथा जब पर्यायकी विवक्षा प्रधान रहती है तब भावनिर्देश होता है । जैसे—-स्पर्शन स्पर्श है, रसन रस है, गन्धन गन्ध है, वर्णन वर्ण है
और शब्दन शब्द है। इस व्युत्पत्तिके अनुसार ये सब स्पर्शादिक धर्म निश्चित होते हैं । इन स्पर्शादिकका क्रम इन्द्रियोंके क्रमसे ही व्याख्यात है । अर्थात् इन्द्रियोंके क्रमको ध्यानमें रखकर इनका क्रमसे कथन किया है।
8301. आगे कहते हैं कि मन अनवस्थित है, इसलिए वह इन्द्रिय नहीं । इस प्रकार जो मनके इन्द्रियपनेका निषेध किया है, सो यह मन उपयोगका उपकारी है या नहीं? मन भी उपकारी है, क्योंकि मनके बिना स्पर्शादि विषयोंमें इन्द्रियाँ अपने-अपने प्रयोजनकी सिद्धि करने में समर्थ नहीं होतीं। तो क्या इन्द्रियोंकी सहायता करना ही मनका प्रयोजन है या और भी इसका प्रयोजन है ? इसी बातको बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
श्रुत मनका विषय है ॥21॥ 16302. श्रुतज्ञानका विषयभूत अर्थ श्रुत है वह अनिन्द्रिय अर्थात् मनका विषय है, क्योंकि श्रुतज्ञानावरणके क्षयोपशमको प्राप्त हुए जीवके श्रुतज्ञानके विषयमें मनके आलम्बनसे ज्ञान की प्रवृत्ति होती है । अथवा श्रुत शब्दका अर्थ श्रुतज्ञान है । और वह मनका अर्थ अर्थात् प्रयोजन है। यह प्रयोजन मनके स्वतः आधीन है, इसमें उसे दूसरेके साहाय्यकी आवश्यकता नहीं लेनी पड़ती।
विशेषार्थ-यहाँ श्रुत शब्दका अर्थ श्रुतज्ञानका विषय या श्रुतज्ञान किया है और उसे अनिन्द्रियका विषय बतलाया है । आशय यह है कि श्रुतज्ञानकी उपयोग दशा पाँच इन्द्रियोंके निमित्तसे न होकर केवल अनिन्द्रियके निमित्तसे होती है। इसका यह अभिप्राय नहीं कि अनिन्द्रियके निमित्तसे केवल श्रुतज्ञान ही होता है, किन्तु इसका यह अभिप्राय है कि जिस प्रकार मतिज्ञान इन्द्रिय और भनिन्द्रिय दोनोंके निमित्तसे होता है उस प्रकार श्रुतज्ञान इन दोनोंके निमित्तसे न होकर केवल अनिन्द्रियके निमित्तसे होता है । इन्द्रियाँ परम्परा निमित्त हैं।
6303. किस इन्द्रियका क्या विषय है यह बतला आये । अब उनके स्वामीका कथन करना है, अतः सर्व प्रथम जो स्पर्शन इन्द्रिय कही है उसके स्वामीका निश्चय करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
* वनस्पतिकायिक तफके जीवोंके एक अर्थात् प्रथम इन्द्रिय होती है ॥22॥ 1. - शन्दः । एषां -मु. ता । -- शब्दः । तेषां -मु.। 2. श्रुतस्यार्थे -मु., ता., ना.।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org