Book Title: Sanmati Tirth Varshik Patrika
Author(s): Nalini Joshi
Publisher: Sanmati Tirth Prakashan Pune

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Page 39
________________ सम्मति-तीर्थ सन्मति-तीर्थ (law of gravitation) है और वस्तुमान - ऊर्जा के स्थित्यंतरों के प्रत्यायक तत्त्व भी इनमें निहित है । आकाश और काल - space और time हैं । ये दो आधुनिक physics या भौतिक विज्ञान के विषय हैं । ये षड् द्रव्य सत्य हैं, तथ्य हैं realities हैं । जैन तत्त्वज्ञान के अनुसार 'जीव' और 'अजीव' के सतत संपर्क से कर्मों का नित्य 'आस्रव' होता रहता है । कर्मास्रव से बद्ध आत्मा प्रयत्नपूर्वक कर्मों के आगमन के द्वार रोक सकती है । यही है 'संवर' तत्त्व । पूर्वार्जित कर्मों का आंशिक एवं संपूर्ण क्षय याने 'निर्जरा' - तपस्या के द्वारा होती है । आत्मा की कर्ममुक्त सहज स्थिति 'मोक्ष' है । 'पुण्य' और 'पाप' दोनों का समावेश 'आस्रव' या 'बंध' में हो सकता है । ये सात या नौ तत्त्व नैतिक तत्त्व (Ethical Tenets) हैं । उसे metaphysics कहा जाता है। जैन तत्त्वज्ञान में अनेकानेक जैन आचार्यों ने सदियोंतक विचारमंथन करके अष्टकर्मोंका सिद्धान्त खूब पल्लवित, पुष्पित किया है । न्यायदर्शन की परिभाषा अपनाकर नयवाद-स्याद्वाद-अनेकान्तवाद की प्रतिष्ठा की है । तत्त्वार्थसूत्र के पहले अध्याय में की गयी सूक्ष्म ज्ञानमीमांसा (Epistemology) इस तत्त्वज्ञान की आधारशिला है। जैनविद्यारूपी प्रासाद का तीसरा दालन है जैन आचारसंहिता । उसमें प्रथम स्थानपर है रत्नत्रयरूप याने सम्यक् दर्शन-ज्ञान-चारित्र युक्त मोक्षमार्ग । साधु के लिए पंचमहाव्रत एवं श्रावक के लिए अणुव्रत-गुणव्रत-शिक्षाव्रत अथवा ग्यारह प्रतिमाओंपर आधारित मार्ग बताया है । इन सबका मूल आधार है 'अहिंसा' । आहार-विहार-वर्तन के नियम, उनके अतिचार तथा प्रायश्चित्तोंका खूब वर्णन किया है । साधु और श्रावक के लिए षट् आवश्यकों के रूप में दैनंदिन और यावज्जीवन आचार के मार्गदर्शक तत्त्व विस्तार से बताए हैं । मंदिरनिर्माण, पूजा-प्रतिष्ठा, विविध उत्सव, दीक्षाविधि, व्रत-विधान, आहारप्रत्याख्यान, उपवास, स्वाध्याय, प्राणिरक्षा, दानधर्म आदि सब जैन आचार के प्रत्यक्ष-समक्ष रूप हैं । विविध कारणों से इस आचार में सम्मीलित क्रियाकांड और आडंबरों की समीचीन समीक्षा एवं आलोचना भी जैन और जैनेतरों से की जाती है । विशेषत: जैनियों की युवा पिढी बाह्याचारों से ऊपर उठकर मूलतक पहुँचने का प्रयास कर रही है । खेद की बात यह है कि बाह्याचारों से परे होकर जैन जीवनशैलीपर आधारित उदारमतवादी, चारित्र्यसंपन्न, ज्ञानी एवं सामाजिक भान रखनेवाले कुशल आदर्श नेतृत्व की प्रतीक्षा जैन युवा पिढी को है, जो उन्हें आसपास नहीं दिखाई दे रही है । सारांश, “जैन तत्त्वज्ञान के मूलाधार और प्रत्यक्ष आचार-व्यवहार" - यह विषय जैनविद्या का एक बहुचर्चित विषय है । जैन युवक-युवतियाँ जैन परंपरा की भूतकालीन गरिमा से ऊपर उठकर समकालीन प्रस्तुतता पर जादा बल देती है, जो कि एक सुचिह्न है । जैनविद्या का चौथा गरिमापूर्ण आयाम है 'जैन साहित्य' (literature) । जैन प्राचीन परंपरा की खासकर भ. महावीर की भाषिक प्रेरणा अतीव मूल्यवान् है । जैन धर्म के प्राचीन उपदेश कभी भी संस्कृत में आविष्कृत नहीं हुए । जैन धर्म के अभिभावकों ने सदियों से जनभाषा-लोकभाषा-बोलचाल की भाषा याने प्राकृत ही अपनायी । संख्या की दृष्टि से अत्यल्प होनेपर भी पाँच विभिन्न भारतीय भाषाओं में लिखकर वैविध्यपूर्ण साहित्यसागर का सर्जन किया । महावीरवाणी अर्धमागधी में प्रकट हुई । तदनंतर दिगम्बरीयों ने 'शौरसेनी' नामक तत्कालीन प्रचलित भाषा

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