Book Title: Sanmati Tark Prakaran Part 02
Author(s): Abhaydevsuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 285
________________ २६६ श्री सम्पति-तर्कप्रकरणम् सत्तेति यावत् - तत्र 'अस्ति' इति मतिरस्य द्रव्यास्तिकः 'सह सुपा' [पाणिनि० २-१-४] इत्यत्र 'सुपा सह' इति योगविभागात् मयूरव्यंसकादित्वाद् वा द्रव्य-आस्तिकशब्दयोः समासः, द्रव्यमेव वाऽर्थोऽस्येति द्रव्यार्थिकः द्रव्ये वा स्थितो द्रव्यस्थितः । परि = समन्तात् अवनम् अवः - पर्यवो विशेषः तज्ज्ञाता वक्ता वा, नयनं नयः नीतिः पर्यवनयः, अत्र छन्दोभंगभयात् 'पर्यायास्तिकः' इति वक्तव्ये 'पर्यवनयः' इत्युक्तम् तेनात्रापि “पर्याय एव 'अस्ति' इति मतिरस्य" इति द्रव्यास्तिकवत् व्युत्पत्तिईकरना चाहिये न ? सामान्य-विशेष का पृथक् पृथक् निरूपण करने वाले द्रव्यार्थिक आदि का निर्देश क्यों ? उत्तर : इसलिये कि वस्तु उभयात्मक होने पर भी उस का प्रतिपादन एकसाथ उभयरूपेण करना अशक्य होता है, इसलिये उभय अंश का क्रमश: निरूपण करने के लिये पृथक् पृथक् द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक नय का आलम्बन किया जाता है। ★ तृतीयगाथा के शब्दों का व्युत्पत्ति-अर्थ ★ अब व्याख्याकार मूल गाथा के एक एक शब्द को लेकर उनकी यथासम्भव व्युत्पत्ति एवं अर्थ दिखलाते हैं- तीर्थ यानी जिससे संसारसागर को पार किया जाय, वह है आचार आदि १२ अंगों का समुदाय अथवा उन १२ अंगो का आधार चतुर्विध संघ । ऐसा तीर्थ जो कि अपने कारणकलाप यानी सामग्री से प्रगट होता है उस सामग्री के अन्तभूर्त कर्ता के रूप में तीर्थोत्पत्ति करने वाले तीर्थकर कहे जाते हैं, 'कृ' धातु को यहाँ हेतुआदि अर्थ में 'टच्' (?ट) प्रत्यय लगने से 'कर' शब्द निष्पन्न होता है । हेतु आदि अर्थों में 'शील यानी स्वभाव' का भी अन्तर्भाव हैं, तीर्थकर अपने कर्तृस्वभाव से ही तीर्थ को जन्म देते हैं अथवा तो पूर्वतृतीयभव में उपार्जित तीर्थकर नामकर्म के विपाकोदयात्मक औपाधिक स्वभाव से तीर्थस्थापना करते हैं अत: स्वभाव अर्थ में प्रत्यय कर के तीर्थकर शब्द की व्युत्पत्ति यथार्थ है। इन तीर्थंकरों के वचन आचार आदि अंगों में गणधरशिष्यों ने ग्रथ लिये हैं । उन आचार आदि सूत्रों की रचना करने वाले गणधर शिष्य हैं किन्तु उनके अर्थ का उपदेश तो तीर्थंकर प्रभु करते हैं इसलिये आचारादि अंगसूत्रों को तीर्थंकरवचन कहने में कोई असंगति नहीं, बल्कि आदरभाव का जागरण होता है । तीर्थंकर वचनों का मुख्य अभिधेय उपरोक्त रीति से क्रमशः द्रव्य और पर्याय हैं, द्रव्य को ही यहाँ सामान्य कहते हैं और पर्याय को ही विशेष कहते हैं । संग्रहादि सात नयों से प्रतिपाद्य जो विविध अर्थविस्तार (नित्य-अनित्यादि) है वह सामान्य-विशेष का ही प्रस्तार है । तात्पर्य यह है कि विविधनयों से सामान्य-विशेष का पृथक्करण होता है तब वस्तु का अनेकविध स्वरूप क्रमश: ज्ञानगोचर होता है । उस संग्रह-व्यवहारात्मक युगल के आद्य प्रतिपादन अथवा ज्ञान करने वाले दो नय मुख्य हैं, द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक । वस्तु का आपेक्षिक ज्ञान यह ज्ञानात्मक नय स्वरूप है और वस्तु का आपेक्षिक निरूपण करनेवाला वचनव्यवहार यह प्रतिपादनात्मक नयस्वरूप है । आद्य प्रतिपादन अथवा ज्ञान का तात्पर्य यह है कि अन्य नैगमादि नय तो वस्तु के एक एक अंश का प्रतिपादन या ज्ञान करेंगे किन्तु ये दो मुख्य नय उन अंशों के समदाय से अभिन्न अखंड ऐसे जो द्रव्य-पर्याय रूप अंशी है - सर्वप्रथम उन का विवेचन करते हैं। द्रव्य और पर्याय भी एक ही वस्तु के प्रधान दो अंश हैं जो कि अपने में अनेक अंशों को धारण किये हुए हैं यह भूलना नहीं चाहिये । यह ज्ञातव्य है कि जब तक अंशी का निर्देश न हो तब तक उस के विविध Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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