Book Title: Sangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Author(s): Chandrasuri, Yashodevsuri
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 726
________________ * 330 . . श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * लिए नियम है कि उन पदार्थोंको किसी एक व्यक्तिने मी प्रत्यक्ष रूपमें देखें हैं ही। अगर किसीको आत्मा, कर्म, परलोक आदि पदार्थ गम्य ( प्रत्यक्ष ) बने हैं तो यह सब केवलज्ञानके वलसे ही होता है। ऐसी व्यक्तियाँ सर्वज्ञ ही हो सकती हैं जिनसे आम जनताको उन सभी नामों और पदार्थोंका बोध मिलता है। ज्योतिषके अनेक शास्त्र संहिताएँ तथा उनके अंगरूप हस्त सामुद्रिकादिक जो तीनों कालकी यथोचित घटनाओंका ज्ञान देते हैं उनके सर्वोच्च कोटिके ज्ञानको अथवा उनके प्रमुख प्रवक्ता जो है उन्हें सर्वज्ञ कहा जाता है। ये केवलज्ञानी अपनी ज्ञानशक्तिसे प्रवचनोंके माध्यमसे अन्य आत्माओंको विश्वके पदार्थोंका स्वरूप, इस संसारमें उपादेय (प्रशस्त, ग्रहण करने योग्य ) क्या है ! हेय ( बुरात्याज्य ) क्या है ? संसार अथवा मोक्ष क्या चीज है ! आत्मा और कर्म क्या है ! और दोनोंके बीच कौन-सा संबंध है ! दुःख-सुखके कारण कौन-से हैं ! इत्यादि असंख्य विषयोंकी स्पष्ट समझ देते . हैं। संसारकी असारताका बोध देते हैं जिन पर मोह अथवा आसक्ति रखनेसे भुगतने पड़ते अनेक दुःखों, वैराग्य, अनासक्तभाव तथा पापकी प्रवृत्तिसे दूर रहनेसे प्राप्त शांति तथा सिद्धि आदिके बोध सुनकर हजारों आत्मा दीक्षा अथवा उच्चतम श्रावकपन (गृहस्थधर्म ) स्वीकारकर कल्याणमार्गकी आराधना करते हैं। इस प्रकार - पाँचों ज्ञानका स्वरूप संपूर्ण हुआ। ___ अब पाँचों ज्ञानकी जानने लायक कुछ हकीकतोंका संक्षिप्तमें निर्देश करते हैं।' कुछ लोग मति और श्रुतको अलग-अलग मानते हैं तो कुछ लोग श्रुतको ही मतिके अन्तर्गत मानकर श्रुतके अलग विभागको मानते नहीं है / तो कुछ लोग मनःपर्यव ज्ञानको अवधिका ही एक प्रकार रूप मानते हैं। केवली विश्वमें प्रवर्तमान अभिलोप्य ( कथन योग्य ) और अनभिलाप्य ( कथनके अयोग्य ) दोनों प्रकारके भावोंको जानते हैं। लेकिन कथन अभिलाप्य भावका ही कर सकते हैं। और इसमें भी अभिलाप्य भावके अनंतवाँ भाग ही सुना सकते हैं। क्योंकि कथन तो अक्षरो द्वारा ही होता है और इन अक्षरोंको कहनेवाली तो भाषा है जो क्रमानुसार व्यक्त होती है। इसके सामने आयुष्य परिमित होता है। इसलिए केवली भगवंत पाससे भी हमें अत्यल्प ज्ञान प्राप्त होता है। यद्यपि यह अत्यल्प ज्ञान भी हमारे लिए तो असाधारण है ही। 644. अनभिलाप्य भाव अभिलाप्य भावोंसे अनंतगुने हैं /

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