Book Title: Samyaktva Parakram 03
Author(s): Jawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
Publisher: Jawahar Sahitya Samiti Bhinasar

View full book text
Previous | Next

Page 240
________________ २३२ - सम्यक्त्वपराक्रम ( ३ ) है आगारधर्म अर्थात् गृहस्थधर्म और अनगारधर्म अर्थात् साधुधर्म | दोनो प्रकार के धर्म की श्रद्धा तो समान ही है, केवल स्पर्शना-आराधना में अन्तर है । अतएव अगर आज तुम शास्त्र के इस कथन को जीवन मे सक्रिय रूप नही दे सकते तो इतना तो मानो कि उपाधि, उपाधि ही है और आत्मा तथा इतर पदार्थ भिन्न-भिन्न है । मासारिक पदार्थो से जितनी कम ममता होगी उतना ही अधिक सुख मिलेगा और जितनी ज्यादा ममता होगी उतना ही अधिक दुख होगा । जब तक तुम इन पदार्थों की ममता मे फँसे रहोगे तब तक आत्मा की उन्नति नही हो सकेगी नही हो सकेगी । आज का विज्ञान भी यही कहता है कि जो मनुष्य दूसरो के फँद मे फँसा रहता है वह अपना विकास नहीं कर सकता। ममत्व का त्याग करने वाला ही अपना विकास कर सकता है । कमल जल मे लिप्त होकर रहे तो उसका विकास नही हो सकता । वह जल से अलिप्त होकर जब बाहर निकलता है तभी उसका विकास होता है। यही बात आत्मा के विकास के लिए लागू होती है । आत्मा भी जब तक वाह्य पदार्थों मे लिप्त रहता है, तब तक वह अपका विकास नही साध सकता । जब वह पदार्थों के ममत्वलेप से रहित हो जाता है तभी अपना विकास साध सकता है इसीलिए शास्त्रकारों ने उपाधि के त्याग का उपदेश दिया है। भगवान् ने कहा हैउपधि का त्याग करने से आत्मा कर्मरहित बनकर सिद्ध, बुद्ध और मुक्त बन सकता है । इस प्रकार एक तरह की उपधि का त्याग करने से प्राप्त होने वाला फल कहा गया है । एक उपधि ऐसी भी है जिससे सयम मार्ग की पुष्टि होती है । प्रश्न किया जा सकता है कि एक ओर तो उपवि

Loading...

Page Navigation
1 ... 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259