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माँ सरस्वती .
९७ . श्री सरस्वती साधना विभाग दर्शन से आनंद प्राप्त करते हैं । अर्थात् विद्याविलासी जन आपके संसर्ग में रहकर ऐसे हर्षित होते है, जैसे की सरोवरों में रहे हुए कमलपुष्प प्रातः काल उदित होते सूर्य की प्रभा से विशेष आनंदित होकर खिल उठते हैं ।
त्वं किं करोषि न शिवे ! न समान मानान् । त्वत् संस्तवं पिपठिषो विदुषो गुरूहः ।। किं सेव यन्नुपकृतेः सुकृतैक हेतुं । भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ।।१०।।
हे कल्याणी ! आपके स्तवन का पाठ करने के अभिलाषी पंडितों को आप ज्ञान प्रदान करके, पूर्ण ज्ञानी बनने का सन्मान प्रदान करती हो । जैसे कि, अपने पुण्य के प्रभावसे सम्पत्ति को प्राप्त करके, परोपकार की उत्कृष्ट भावना रखने वाला धनाढ्य, अपने आश्रित सेवकों को अपने समान ही लक्ष्मीवान् या सम्पत्ति का स्वामी बना देता है।
सरस्वती स्तोत्र का अमृतरस यत् त्वत् कथा ऽमृतरसं सरसं निपीय । मेधाविनो नव सुधामपि नाद्रियन्ते ।। क्षीरार्णवार्ण उचितं मनसा ऽप्यवाप्य । क्षारं जलं जलनिधे रशितुं क इच्छेत् ? ||११||
हे मां शारदा ! ज्ञानी पंडित जनों को आपके स्तवन रूपी अमृतरस का आकंठ पान करने के बाद, उन्हें किसी नये अमृतरसपान की इच्छा नहीं रहती है । जैसे कि क्षीर समुद्र का जल पीकर तृप्त होने वाला कभी लवण समुद्र का खारा जल चखने की इच्छा नहीं करता।
[ आपके सारस्वतरूप की अनेकता जैना वदन्ति वरदे ! सति ! साधु रूपां । त्वा मामनन्ति नितरा मितरे भवानीम् ।। सारस्वतं मत विभिन्न मनेकमेकं । यत् ते समान मपरं न हि रूपमस्ति ।।१२।।