Book Title: Samyag Darshan Part 04
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai

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Page 156
________________ www.vitragvani.com 140] [सम्यग्दर्शन : भाग-4 उसे निर्जरा होती है। इस प्रकार 'टङ्कोत्कीर्ण एक ज्ञायकस्वभावमयता' वह मूलवस्तु है। उसके ही अवलम्बन से ये नि:शङ्कता आदि आठों गुण टिके हुए हैं और उसके ही अवलम्बन से निर्जरा होती है। धर्मी की दृष्टि में से उस स्वभाव का अवलम्बन कभी एक क्षणमात्र भी हटता नहीं है। ___ यहाँ वात्सल्य के वर्णन में भी आचार्यदेव ने अद्भुत बात की है। समकिती को रत्नत्रय के प्रति वात्सल्य होता है; क्यों? तो कहते हैं कि रत्नत्रय को स्वयं से अभेदबुद्धि से देखता होने से उसके प्रति उसे परमवात्सल्य होता है। देखो! इस वात्सल्य में राग की या विकल्प की बात नहीं परन्तु सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र तो मेरा स्वभाव ही है - ऐसे रत्नत्रय को अपने आत्मा के साथ अभेदरूप से अनुभवना-उनसे जरा भी भेद नहीं रखना, यही उनके प्रति परमवात्सल्य है। जिस चीज को अपनी मानें, उसके प्रति प्रेम होता है। जैसे गाय को अपने बछड़े के प्रति अतिशय प्रेम होता है; इसी प्रकार धर्मी जानता है कि यह रत्नत्रय तो मेरे घर कीमेरे स्वभाव की चीज है; इसलिए उसे रत्नत्रय के प्रति अतिशय प्रेम होता है; उससे अपनी किञ्चित् भी भिन्नता वह नहीं देखता। ___ श्रद्धा' को एकपना ही रुचता है, उसे भेद या अपूर्णता रुचते ही नहीं। सम्यक्श्रद्धा द्वारा धर्मात्मा, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र को अपने आत्मा के साथ अभेदबुद्धि से देखता है; रागादि के साथ उसे स्वयं की एकता भासित ही नहीं होती। इस प्रकार ज्ञायकस्वभाव की दृष्टि में धर्मात्मा, रत्नत्रय को अपने साथ अभेदबुद्धि से देखता होने से, उस रत्नत्रयस्वरूप मोक्षमार्ग के प्रति वह अत्यन्त प्रीतिवाला है, मोक्षमार्ग की ओर उसे परमवात्सल्य होता है और रागादि Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.

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