Book Title: Samyag Darshan
Author(s): Kanjiswami
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 270
________________ २५८ - सम्यग्दर्शन हे जीव ! यदि तू आत्माको न जाने और मात्र पुण्य - पुण्य ही करता रहेगा तो भी तू सिद्धि सुखको प्राप्त नहीं कर सकेगा । किन्तु पुनः पुनः संसारमें परिभ्रमण करेगा । निज दर्शन बस श्रेष्ठ है, अन्य न किंचित् मान हे योगी ! शिव हेतु से निश्वयथी तु जाण । हे योगी ! एक परम आत्म दर्शन ही मोक्षका कारण है, इसके अतिरिक्त अन्य कोई भी मोक्षका कारण नहीं है—ऐसा तू निश्चयसे समझ ! गृह कार्य करते हुए, घ्यावे सदा जिनेश पद, [ योगसार - १६] गृह-व्यवहारमें रहने पर भी जो ता है और जिन भगवानको निरंतर प्राप्त होता है । हेयाहेयका ज्ञान; शीघ्र लहे निर्वाण । [ योगसार- १८] भव्य जीव हेय - उपायको समध्याता है वह शीघ्र निर्वाणको जिनवर ने शुद्धात्ममां, किंचित् भेद न जाण; मोक्षार्थी हे योगीजन ! निश्वयथी ए मान । [ योगसार -२० ] मोक्ष प्राप्त करनेके लिये हे योगी ! शुद्धात्मा और जिन भगवानमें किंचित् भी भेद न समको ! - इसप्रकार निश्चय से मानो । न्यां लगी एक न जाणियो परम पुनीत शुद्ध भाव; मूढ तणा व्रत -तप सहु, शिव हेतु न कहाय । [ योगसार - २६ ] जब तक एक परम शुद्ध पवित्र भावका ज्ञान नहीं होता तब तक

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