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श्री संवेगरंगशाला
कर आश्चर्यपूर्वक पल्लीपति ने विचार किया कि यदि एक पैसे का नाश देखकर पुत्र को भी निकाल देना चाहता है वह यदि घर में चोरी हुई जानकर तो निश्चय धन का नाश होने से हृदय आघात द्वारा मर जायेगा, इसलिए इस तरह कृपण के बाप को मारना योग्य नहीं है। अतः राजमहल में जाकर वहाँ से इच्छानुसार ग्रहण करूँ, हाथी की प्यास अति अल्प झरने के पानी से शान्त नहीं होती है। उसे ऐसा सोचते हुए रात्री पूर्ण हो गई और पूर्व दिशा सन्मुख केसर के तिलक समान अरूणोदय हुआ।
उसके बाद धीरे-धोरे वहाँ से निकलकर वापिस वह अरण्य में गया और पुष्ट शरीर वाली गोह को लेकर पुनः वह नगर में आया, राजभवन में चढ़ने के लिए गोह के पूछड़े रस्सी मजबूत बाँधकर और साथ में अपने को बाँधकर उसने गोह को जोर से ऊँचे फेंका और मजबूत पैर टेककर महल की दिवाल को उलांघकर महल के ऊपर चढ़ा, फिर प्रसन्न मन वाला वह पल्लीपति गोह को छोड़कर धीरे से महल में जाने लगा, वहाँ उसी समय राजा के प्रति क्रोधित हुई, अपने मणिमय अलंकारों की कान्ति के समूह से अन्धकार को दूर करती शय्या में सोई हुई राजा को पट्टरानी वंकचूल को देखकर इस प्रकार से बोलने लगी-हे भद्र ! तू कोन है ? उसने कहा-जगत में प्रसिद्ध मैं वंकचूल नामक चोर हूँ और मणि-सुवर्ण आदि चोरी करने के लिये मैं आया हूँ। ऐसा कहने से रानो बोली-तू सुवर्ण आदि का चोर नहीं है, क्योंकि-हे निर्दय ! तू वर्तमान में मेरे हृदय की चोरी करना चाहता है । उसने कहा-हे सुतनु ! आप ऐसा नहीं बोलो, क्योंकि चिरजीवन की इच्छा वाले कौन शेषनाग की मणि को लेने की अभिलाषा करे ? उसके बाद उसकी कामदेव समान शरीर की सुन्दरता से मोहित चित्त वाली स्त्री स्वभाव में ही अत्यन्त तुच्छ बुद्धि वाली कुल के कलंक को देखने में पराङमुख और काम से पीड़ित रानी ने कहा-हे भद्रक ! यह राजमहल है' ऐसे स्थान के भय को दूर फेंकर अभी ही मेरा स्वीकार कर। ऐसा करने से ही शेष सभी तुम्हारे इच्छित धन प्राप्ति जल्दी हो जायेगी। अत्यन्त निर्मल उछलती रत्न को कान्तिवाले अलंकारों की श्रेणी को तू क्या नहीं देखता है ? हे सुभग ! इसका तू स्वामी होगां। ऐसा उसका वचन सुनकर वंकचूल ने पूछा-हे सुतनु ! तू कौन है ? क्यों यहाँ रहती है ? अथवा तेरा प्राणनाथ कौन है ? उसने कहा-हे भद्रक ! महाराजा की मैं पट्टरानी हूँ, राजा के प्रति क्रोध करके यहाँ पर इस तरह रहती हैं। पूर्व के अभिग्रह को स्मरण करके उसने कहा-यदि आप राजा की रानी हो, तो मेरी माता के तुल्य हैं, इसलिए हे महानुभाव ! पुनः ऐसा नहीं बोलना, 'जिससे