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इन (वर्णादि) के साथ (जीव का) मवध दूध और जल के समान (अस्थिर) समझा जाना चाहिए । वे (वर्णादि) उसमे (जीव मे) (स्थिररूप से) विल्कुल ही नही रहते है,
क्योकि (जीव) तो ज्ञान-गुण से ओतप्रोत (होता है)। 24 मार्ग मे (व्यक्ति को) लूटा जाता हुआ देखकर सामान्य लोग
कहते है (कि) यह मार्ग लूटा जाता है। किन्तु (वास्तव मे)
कोई मार्ग लूटा नही जाता है, (लूटा तो व्यक्ति जाता है) । 25 उसी प्रकार जीव मे कर्म और नोकर्म से (उत्पन्न) बाह्य
दिखाव-बनाव को देखकर, जिन के द्वारा कहा गया (है)
(कि) यह दिखाव-बनाव व्यवहार से जीव का हो है। 26 जो गध, रस, स्पर्श और वर्ण (हैं), (जो) देह (है) तथा जो
आकार आदि (है), (वे) सब व्यवहार से (जीव के) (जितेन्द्रियो द्वारा) कथित (है)। (ऐसा) निश्चय के जानकार कहते है। उस (व्यवहार) अवस्था मे ससार (मानसिक तनाव) मे स्थित जीवो के वर्ण आदि होते है, परन्तु ससार (मानसिक तनाव) से मुक्त (जीवो) मे किसी भी प्रकार का वर्ण आदि
नही होता है। 28 यदि (तू) निश्चय से इस प्रकार मानता है (कि) (जीव की)
ये सब अवस्थाएं निस्सदेह जीव ही (है), तो (तेरे लिए) जीव और अजीव मे कोई भेद ही नही रहेगा। जव तक (व्यक्ति) आत्मा व आश्रव (कर्मों/मानसिक तनावो की उत्पत्ति) दोनो के ही विशेष भेद को नही समझता है, तव तक वह अज्ञानी (व्यक्ति) क्रोधादि को ही करता रहताहै।
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