Book Title: Samaysara
Author(s): Kundkundacharya, Parmeshthidas Jain
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 618
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ५८४ यदा तु सर्व वै खल्विदमात्मेति अज्ञानतत्त्वं स्वरूपेण प्रतिपद्य विश्वोपादानेनात्मानं नाशयति, तदा पररूपेणातत्त्वं द्योतयित्वा विश्वाद्भिन्नं ज्ञानं दर्शयन्ननेकान्त एव नाशयितुं न ददाति २। यदानेकज्ञेयाकारैः खण्डितसकलैकज्ञानाकारो नाशमुपैति, तदा द्रव्येणैकत्वं द्योतयन्ननेकान्त एव तमुज्जीवयति ३। यदा त्वेकज्ञानाकारोपादानायानेकज्ञेयाकारत्यागेनात्मानं नाशयति, तदा पर्यायैरनेकत्वं द्योतयन्ननेकान्त एव नाशयितुं न ददाति ४ । यदा ज्ञायमानपरद्रव्यपरिणमनाद् ज्ञातृद्रव्यं परद्रव्यत्वेन प्रतिपद्य नाशमुपैति, तदा स्वद्रव्येण सत्त्वं द्योतयन्ननेकान्त एव तमुज्जीवयति ५। यदा तु सर्वद्रव्याणि अहमेवेति परद्रव्यं ज्ञातृद्रव्यत्वेन प्रतिपद्यात्मानं नाशयति, तदा परद्रव्येणासत्त्वं द्योतयन्ननेकान्त एव नाशयितुं न ददाति ६ । समयसार और जब वह ज्ञानमात्र भाव 'वास्तवमें यह सब आत्मा है' इसप्रकार अज्ञानतत्त्वको स्व-रूपसे (ज्ञानरूपसे) मानकर - अंगीकार करके विश्वके ग्रहण द्वारा अपना नाश करता है ( - सर्व जगतको निजरूप मानकर उसका ग्रहण करके जगतसे भिन्न ऐसे अपने को नष्ट करता है ), तब ( उस ज्ञानमात्र भावका ) पररूपसे अतत्पना प्रकाशित करके (अर्थात् ज्ञान पररूप नहीं है यह प्रगट करके ) विश्व से भिन्न ज्ञानको दिखाता हुआ अनेकांत ही उसे अपना ( - ज्ञानमात्र भावका ) नाश नहीं करने देता। २। जब यह ज्ञानमात्र भाव अनेक ज्ञेयाकारोंके द्वारा ( - ज्ञेयोंके आकारों द्वारा ) अपना सकल (–अखंड, सम्पूर्ण ) एक ज्ञान - आकार खंडित ( - खंड-खंडरूप) हुआ मानकर नाशको प्राप्त होता है, तब ( उस ज्ञानमात्र भावका ) द्रव्यसे एकत्व प्रकाशित करता हुआ अनेकांत ही उसे जीवित रखता है- नष्ट नहीं होने देता । ३। और जब वह ज्ञानमात्र भाव एक ज्ञान - आकारका ग्रहण करनेके लिये अनेक ज्ञेयाकारोंके त्याग द्वारा अपना नाश करता है ( अर्थात् ज्ञानमें जो अनेक ज्ञेयोंके आकार आते हैं उनका त्याग करके अपनेको नष्ट करता है ), तब ( उस ज्ञानमात्र भावका) पर्यायोंसे अनेकत्व प्रकाशित करता हुआ अनेकांत ही उसे अपना नाश नहीं करने देता । ४। जब यह ज्ञानमात्र भाव, जानने में आनेवाले ऐसे परद्रव्योंके परिणमनके कारण ज्ञातृद्रच्तको परद्रव्यरूपसे मानकर - अंगीकार करके नाश को प्राप्त होता है, तब ( उस ज्ञानमात्र भावका ) स्वद्रव्यसे सत्व प्रकाशित करता हुआ अनेकांत ही उसे जिलाता है- नष्ट नहीं होने देता । ५। और जब यह ज्ञानमात्र भाव ' सर्व द्रव्य मैं ही हूँ ( अर्थात् सर्व द्रव्य आत्मा ही है)' इसप्रकार परद्रव्यका ज्ञातृद्रव्यरूपसे मानकर - अंगीकार करके अपना नाश करता है, तब (उस ज्ञानमात्र भावका ) परद्रव्यसे असत्व प्रकाशित करता हुआ (अर्थात् आत्मा परद्रव्यरूपसे नहीं है, इसप्रकार प्रगट करता हुआ ) अनेकांत ही उसे अपना नाश नहीं करने देता । ६ । Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com

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