Book Title: Saman suttam
Author(s): Kailashchandra Shastri, Nathmalmuni
Publisher: Sarva Seva Sangh Prakashan

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Page 13
________________ भूमि का 'समणमुत्त' नामक इस ग्रन्थ की सरचना या सकलना आचार्य विनोबाजी की प्रेरणा से हुई है। उसी प्रेरणा के फलस्वरूप मगीति या वाचना हुई और उसमे इसके प्रारूप को स्वीकृति प्रदान की गयी। यह एक विशिष्ट ऐतिहासिक घटना है। ___ विश्व के समस्त धर्मो का मूल आधार है---आत्मा और परमात्मा । इन्ही दो तत्त्वरूप स्तम्भो पर धर्म का भव्य भवन खडा हुआ है। विश्व की कुछ धर्म-परम्पराएँ आत्मवादी होने के साथ-साथ ईश्वरवादी है और कुछ अनीश्वरवादी । ईश्वरवादी परम्परा वह है जिसमे सृष्टि का कर्ता-धर्ता या नियामक एक सर्वशक्तिमान् ईश्वर या परमात्मा माना जाता है। सृष्टि का सब-कुछ उसी पर निर्भर है। उसे ब्रह्मा, विधाता, परमपिता आदि कहा जाता है। इस परम्परा की मान्यता के अनुसार भमण्डल पर जब-जब अधर्म बढता है, धर्म का ह्रास होता है, तब-तब भगवान् अवतार लेते है और दुप्टो का दमन करके सृष्टि की रक्षा करते है, उसमे सदाचार का बीज-वपन करते है। अनीश्वरवादी परम्परा __ दूसरी परम्परा आत्मवादी होने के साथ-साथ अनीश्वरवादी है, जो व्यक्ति के स्वतंत्र विकास में विश्वास करती है। प्रत्येक व्यक्ति या जीव अपना सम्पूर्ण विकास कर सकता है । अपने मे राग-द्वेष, विहीनता या वीतरागता का सर्वोच्च विकास करके वह परमपद को प्राप्त करता है। वह स्वयं ही अपना नियामक या संचालक है। वह स्वयं ही अपना मित्र है, शत्रु है। जैनधर्म इमी परम्परा का अनुयायी स्वतन्त्र तथा वैज्ञानिक धर्म है। यह परम्परा सक्षेप म 'श्रमण-सस्कृति' के नाम से पहचानी जाती है। इस आध्यात्मिक परम्परा मे बौद्ध आदि अन्य धर्म भी आते है। ईश्वरवादी भारतीय परम्परा 'ब्राह्मण-संस्कृति' के नाम से जानी जाती है। -दस - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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