Book Title: Samadhi aur Sallekhana
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Digambar Jain Vidwatparishad Trust

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Page 22
________________ समाधि और सल्लेखना यों कलेश हियधार मरणकर, चारों गति भरमायो। सम्यक्दर्शन-ज्ञान-चरण ये, हिरदे में नहिं लायो ।। मृत्यु मित्र उपकारी तेरो, इस अवसर के माहीं। जीरन तनसे देत नयो यह, या सम साहू नाहीं।। या सेती इस मृत्यु समय पर, उत्सव अति ही कीजै। क्लेश भाव को त्याग सयाने, समताभाव धरीजै ।। जो तुम पूरव पुण्य किये हैं, तिनको फल सुखदाई। मृत्यु मित्र बिन कौन दिखावै, स्वर्ग संपदा भाई ।। राग-रोष को छोड़ सयाने, सात व्यसन दुःखदाई। अन्त समय में समता धारो, परभव पंथ सहाई ।। मृत्युराय को शरन पाय, तन नूतन ऐसो पाऊँ । जा मैं सम्यक्रतन तीन लहि, आठों कर्म खपाऊँ ।। यह सब मोह बढ़ावन हारे, जियको दुर्गति दाता। इनसे ममत निवारो जियरा, जो चाहो सुख साता ।। मृत्यु कल्पद्रुम पाय सयाने, मांगो इच्छा जेती। समता धरकर मृत्यु करो तो, पायो संपति तेती ।। चौ आराधन सहित प्राण तज, तौ ये पदवी पावो । हरि प्रतिहरि चक्री तीर्थेश्वर, स्वर्गमुकति में जावो ।। मृत्युकल्पद्रुम सम नहि दाता, तीनों लोक मझारे। ताको पाय कलेश करो मत, जन्म जवाहर हारे ।। समाधि और सल्लेखना रोगशोक आदिक जो वेदन, ते सब पुद्गल लारै । मैं तो चेतन व्याधि बिना, नित ऐसो भाव हमारै ।। या तनसों इस क्षेत्र संबंधी, कारण आन ठन्यो है। खानपान दे वाको पोष्यो, अब समभाव तन्यो है।। बिन समाधि ये दुःख लहे मैं, अब उर समता आई। मृत्युराज को भय नहीं मानो, देयै तन सुखदाई ।। या” जब लग मृत्यु न आवै, तब लग जपतप कीजै। जब तप बिन इश जग के माही, कोई भी न सीजै ।। मन थिरता करके तुम चिंतो, चौ आराधन भाई। ये ही तोकों सुख की दाता, और हितू कोउ नाहीं ।। आगैं बहु मुनिराज भये हैं, तिन गहि थिरता भारी। बहु उपसर्ग सहे शुभ भावन, आराधन उरधारी ।। तिनमैं कछु इक नाम कहूँ मैं, सो सुन जिय चित लाकै। भाव सहित अनुमोदे तासों, दुर्गति होय न ताके ।। अरु समता निज उर में आवै, भाव अधीरज जावै। यों निशदिन जो उन मुनिवर को, ध्यान हिये बिच लावै।। धन्य-धन्य सुकुमाल महामुनि, कैसे धीरज धारी। एक श्यालनी जुग बच्चाजुत, पाँव भख्यों दुःखकारी ।। यह उपसर्ग सह्यो धर थिरता, आराधन चितधारी। तो तुमरे जिय कौन दुःख है? मृत्यु महोत्सव भारी ।। धन्य धन्य जु सुकौशल स्वामी, व्याघ्री ने तन खायो। तो भी श्रीमुनि नेक डिगे नहिं, आतम सो चित लायो ।।यह उपसर्ग.।।

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