Book Title: Sahajta Hindi
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Dada Bhagwan Aradhana Trust

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Page 187
________________ १४८ सहजता ऐसा ही। हमारा कुछ नहीं । ' विचरे उदय प्रयोग, अपूर्व वाणी परम श्रुत !' उसके जैसा। जहाँ पोतापणुं नहीं वहाँ निरंतर सहज हमारी यह साहजिकता कहलाती है । साहजिकता में कोई हर्ज नहीं । किसी प्रकार की दखल ही नहीं । आप ऐसा कहो तो ऐसा और वैसा कहो तो वैसा। पोतापणुं (मेरापन ) ही नहीं न ! और आप थोड़ा सा पोतापणुं छोड़ दो ऐसे हो? हमें तो ऐसा कहें कि 'गाड़ी में जाना है' तो वैसा । फिर वापस वे कल कहेंगे कि 'यहाँ जाना है' तो वैसा । 'नहीं' ऐसा नहीं । हमें कुछ हर्ज ही नहीं । हमारा खुद का मत ही नहीं रहता, उसे ही साहजिकपना कहते हैं । परायों के मत से चलना, वह साहजिकपना है। हम ऐसे दिखने में हैं तो भोले, लेकिन बहुत पक्के हैं । बालक जैसे दिखते हैं लेकिन पक्के होते हैं। किसी के साथ हम बैठे नहीं रहते, चलने ही लगते हैं। हम अपना 'प्रोग्रेस' कैसे छोड़ दें ? हम में साहजिकता ही रहती है, निरंतर साहजिकता ही रहती है। एक क्षण के लिए भी साहजिकता से बाहर नहीं जाते। उसमें हमारा पोतापणुं नहीं रहता, इसलिए जैसे कुदरत रखती है वैसे रहते हैं । जब तक पोतापणुं नहीं छूटेगा तब तक सहज कैसे हो सकेंगे ? जब तक पोतापणुं रहेगा तब तक सहज किस तरह से होंगे ? यदि पोतापणुं को छोड़ दोगे तो सहज हो जाओगे । सहज होने पर उपयोग में रह सकते हैं । जब तक हम में साहजिकता होती है तब तक हमें प्रतिक्रमण नहीं करना पड़ता। साहजिकता में आपको भी प्रतिक्रमण नहीं करना पड़ता । यदि साहजिकता में फर्क हुआ तो प्रतिक्रमण करना पड़ता है। हमें तो, आप जब देखोगे तब साहजिकता में ही देखोगे । जब देखो तब हम अपने उसी स्वभाव में ही दिखाई देंगे। हमारी साहजिकता में फर्क नहीं पड़ता ! ज्ञानी का सहज शुभ व्यवहार प्रश्नकर्ता: ज्ञानी का व्यवहार सहज होता है लेकिन उसके परिणाम में सारा व्यवहार शुभ ही होता है ?

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