Book Title: Sadbodh Sangraha Part 01
Author(s): Karpurvijay
Publisher: Porwal and Company

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Page 33
________________ (२५) ४३ निर्धनताके वस्त खेदभी न करना. पूर्वकृत कर्मानुसार प्राणी मात्रको सुख दुःख होय तैसे सम विषम संयोग मिल जाय तो भी तैसे समयमें कर्मका स्वरुप सोचकर हर्ष उन्माद या दीनता न करते समभावसही रहेकर श्यानासुज्ञ जनोने शुभ विचार वृत्ति पोषण कर समर्थ धर्मनीतिका प्रतिसे पा हिम्मतसे सेवन करना योग्य है. पहिले अशुभ कर्म करके वस्त प्राणी पीछे मुंह फिराकर देखते नहि है, जिसके परिणामसे अनंत दुःख वेदना सहन करते हुवे को त्रास पाते है. अशुभ-निकर्म करके अपने हाथासे भंग लिये हुवे दुःख उदय आनेसे दीनता करनी सो केवल कायरता ही कही जाति है. दुःख पसंद पडता न हो तो दुःखदायक निधकृत्योसे विचार कर पश्चाताप कर उनसे अलग हो जाना, जिस्से तैसे दु.ख विपाक भोगने पडेही नहि; परंतु पूर्वके कीये हुवे दुष्कृत्योके योगसे पडा हुवा दुख सहन करते दीन हो खेद विपाद धरना वा विकल हो अविवेकतासे दूसरे दुष्कृत्य करना सो तो प्रकट दुःखका मार्ग है. ४४ सम्भावसे रहना, जो महाशय सुख, दुःख, मान, अपमान, निंदा, स्तुति, सधनता, निर्धनता, राजा, रंक, कंचन, पथ्थर, तृण और मणि वा नारी और नागनको अगाडी कहे हुवे सद्विचार मुजब वर्तन रखकर समान गिनते है और उसम मोह प्राप्त नहीं होता है. यावत् तिनको केवल कमविकाररुप निमित्तभूत गिनकर मनमें विषमता न ल्याते हर्ष विषाद रहित सम बुद्धिसेही देखते है, तैसे सविचारपंत विवेकवंत-सद्गुण शिरोमणी जन समसुख अवगाह कर धर्म आराधनसे अवश्य स्वकार्य सिद्ध करते है, परंतु जो अज्ञानता के

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