Book Title: Ratnatraya Part 02 Author(s): Surendra Varni Publisher: Surendra Varni View full book textPage 6
________________ इसी लक्ष्य को लेकर वर्णी जी ने अपने अथक प्रयास से धर्म के दशलक्षणों व रत्नत्रय का वर्णन 1008 कहानियों सहित इस ग्रन्थ में किया है। आचार्य श्री शान्तिसागर जी, आचार्य श्री विद्यासागर जी, आचार्य श्री विशदसागर जी, मुनि श्री सुधासागर जी, मुनि श्री क्षमासागर जी आदि अनेक मुनिराजां के प्रवचनों क कुछ अंशों का इस ग्रन्थ में समावेश किया गया है। इस ग्रन्थ में वर्णी जी न संसार भ्रमण का कारण बताते हुये लिखा हैयह जीव अनादिकाल से अपने स्वरूप को न जानने के कारण ही संसार में भटक रहा है। शरीर और आत्मा भिन्न-भिन्न हैं, परन्तु मोह के नशे के कारण संसारी प्राणी अपनी आत्मा का नहीं पहचानता और इस पुद्गल शरीर को ही “मैं” मान लेता है। अपने स्वरूप को न समझ पाने के कारण उसका वर्तमान जीवन भी दुःखी व भविष्य का जीवन भी दुःखी रहता है। सार दुःखां का मूल कारण है शरीर में अपनापन | राग-द्वेष की उत्पत्ति का कारण है शरीर में अपनापन | शरीर को अपने रूप जितना देखोगे, उतना राग-द्वेष, मोह बढ़ेगा और जितना इस शरीर को स्वयं से अलग देखोगे तो मोह पिघलने लगेगा। यह आत्मा न अग्नि से जलता है, न पानी स गलता है, न हवा से सूखता है और न शस्त्रों से कटता है। शरीर के प्रदेशों में व्याप्त रहने पर भी वह उनसे भिन्न रहता है | सम्यग्दृष्टि जीव कभी-भी राग-द्वेष आदि विभावों को अपना स्वरूप नहीं मानते | आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने लिखा एगो म सासदो आदा, णाण-दंसण लक्खणो । से सा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोग लक्खणा ।। ज्ञान-दर्शन लक्षण वाला एक आत्मा ही मेरा है। वही शाश्वत अर्थात् अविनाशी है और पर-पदार्थ के संयोग से उत्पन्न होने वाले राग-द्वेषादिPage Navigation
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