Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer

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Page 513
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ४७०] श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार के बल से भिन्न अनुभव करता है; जीव से मिली हुई देह को भी वस्त्र के समान अलग (न्यारा) जानता है। अठारह दोष रहित सर्वज्ञ वीतराग में ही देवबुद्धि से उनकी आराधना करता है, दोष सहित में देवबुद्धि नहीं करता है। धर्म दयारुप ही मानता है, हिंसा में कभी तीनकाल में धर्म नहीं मानता। आरंभ-परिग्रह रहित ही गुरु है, अन्य गुरु नहीं-ऐसा दृढ़ श्रद्धान होता है । कोई जीव किसी जीव को मारता नहीं है, जिलाता नहीं है, दुःखी नहीं करता है, सुखी नहीं करता है, उपकार-अपकार नहीं करता है, दरिद्री-धनाढ्य नहीं करता है, केवल अपने भावों से बांधे गये कर्मों के उदय से जीता है, मरता है, सुखी-दुःखी होता है, दरिद्री-धनाढ्य होता है अपने कर्मों के उदय से प्राप्त संसार के भोग भोगता है। भक्ति से पूजे व्यंतर आदि देव, मन्त्र, यन्त्रादि समस्त ही पुण्यहीन का कुछ भी उपकार करने में समर्थ नहीं हैं। पुण्य नष्ट हो जाने पर सभी मित्रादि भी शत्रु हो जाते हैं। पुण्य-पाप के प्रबल उदय से माटी, धूल, भस्म, पत्थर आदि देवता के रुप में होकर उपकार-अपकार करते हैं। सम्यग्दृष्टि के तो ऐसा निश्चय है: जिस जीव के, जिस देश में , जिस काल में , जिस प्रकार से जन्म-मरण, लाभ-अलाभ, सुख-दुःख होना जिनेन्द्र भगवान ने दिव्यज्ञान से जाना है उस जीव के , उस देश में , उस काल में, उसी प्रकार से जन्म-मरण, लाभ-अलाभ, सुख-दु:ख नियम से होते हैं, उसे दूर करने को कोई इन्द्र, अहमिन्द्र , जिनेन्द्र समर्थ नही हैं। जो ऐसा समस्त द्रव्यों की समस्त पर्यायों को जानता है, श्रद्धान करता है वह सम्यग्दृष्टि प्रथम पद का धारक दार्शनिक श्रावक जानना चाहिये।१। अब दूसरे व्रत पद का लक्षण कहते हैं: निरतिक्रमणमणुव्रतपंचकमपि शीलसप्तकं चापि । ___ धारयते निःशल्यो योऽसौ वतिनों मतो व्रतिकः ।।१३८ ।। अर्थ :- जो अतिचार रहित पाँच अणुव्रत और सात शील (तीन गुणव्रत ,चार शिक्षाव्रत) इन बारह व्रतों को माया–मिथ्या निदान शल्यों से रहित होकर धारण करता है, वह व्रतियों के बीच व्रती श्रावक माना जाता है।२। अब तीसरे सामायिक पद का लक्षण कहते हैं:__ चतुरावर्तत्रितयश्चतुःप्रणामः स्थितो यथाजातः । सामयिको द्विनिषद्यस्त्रियोग शुद्धस्त्रिसन्ध्यमभिवन्दी ।।१३९ ।। अर्थ :- सामायिक में पंच नमस्कार के पहले व अन्त में तथा थोस्सामि के पहिले चारों दिशाओं में एक-एक प्रणाम, तीन-तीन आवर्त करता है; कायोत्सर्ग में स्थित, बाह्य आभ्यन्तर परिग्रह से रहित, दो आसन में से किसी एक आसन में, देववंदन के पहले व पश्चात् दो बार झुककर, दिन में तीन Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com

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