Book Title: Raja aur Praja
Author(s): Babuchand Ramchandra Varma
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

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Page 59
________________ राजा और प्रजा । १०६ ' इस सम्बन्धमें चुप रहनेके लिये वाध्य हैं। हमारे देशमें पहले बराबरीके किसी राजाके आगमन के समय अथवा राजकीय शुभ कार्योंके समय जो सब उत्सव और आमोद आदि होते थे उनमें सारा व्यय राजा अपने पाससे ही देता था । जन्मतिथि आदि अनेक प्रकारके अवसरोंपर प्रजा सदा राजाका अनुग्रह प्राप्त करती थी। लेकिन आजकल सब बातें इसके बिलकुल विपरीत हैं । राजाके यहाँ चाहे शादी हो चाहे गमी, उसका लाभ हो चाहे हानि, लेकिन उसकी ओरसे सदा प्रजाके सामने चन्देका खाता ही रखा जाता हैं और राजा तथा रायबहादुर आदि खिताबों की राजकीय नीलामकी दूकान जम जाती है। अकबर और शाहजहाँ आदि बड़े बड़े बादशाह अपनी कीर्त्ति स्वयं अपने व्ययसे ही खड़ी कर गए हैं । लेकिन आजकलके कर्मचारी लोग तरह तरहके छलों और तरह तरहके कौशलोंसे प्रजासे ही अपने बड़े बड़े कीर्तिस्तम्भों का खर्च वसूल कर लेते हैं । सम्राटके प्रतिनिधिने सूर्यवंशीय क्षत्रिय राजाओंको सलाम करनेके लिये अपने पास बुलाया है, पर यह तो नहीं मालूम होता कि सम्राट इन प्रतिनिधि महाशयने अपने दानसे कौनसा बड़ा भारी तालाब खोदवाया है, कौनसी धर्मशाला बनवाई है और देशके लिये शिक्षा और शिल्पचर्चाको कौनसा आश्रय दिया है ? प्राचीनकालके बादशाह, नवाब और राजकर्मचारीगण भी इस प्रकार के मंगलकार्यों द्वारा प्रजाके हृदयके साथ सम्बन्ध रखते थे । आजकल राजकर्मचारियों का तो अभाव नहीं है और उनके बड़े बड़े वेतन भी संसारमें विख्यात हैं; परन्तु ये लोग इस देशमें दान और सत्कर्म करके अपने अस्तित्वका कोई चिह्न नहीं छोड़ जाते । ये लोग विलायती दूकानोंसे ही अपना सारा सामान खरीदते हैं, अपने विलायती संगीसाथियोंके साथ ही आमोद-प्रमोद करते हैं और विलायतके किसी कोने में बैठकर अन्तिम कालतक अपनी पेन्शिनका भोग किया करते हैं ।

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