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प्रगृह्य कस्यचित् कन्या राक्षसी गन्तुमुद्यता ॥ सा वाला रुदती गाढं स्मरन्ती कुलदेवताम् । त्राहि त्राहीति सुरभिमातरित्यालपन्मुहुः ॥ इष्टा वंशस्य वै तस्याः सुरभिर्नाम देवता। कन्यापिकस्वरैर्मत्वा सुरभिस्तामकीलयत् ।। ततः श्रीमालतः प्राप्तः श्रीपुञ्जः सह सैनिकैः।
श्री पुञ्ज उवाच । दुष्टे चिरेण लब्धाऽसि विजकन्यापदागिण । मया मुक्तः शरोऽयं ते शिरश्छेत्स्यति सारिके ॥
वसिष्ठ उवाच । इत्युक्त्वा शरसन्धाने दृष्ट्वा राजानमातुरम् । विहाय ब्राह्मणसुतां भोतोवाचाथ सारिका ॥
किन्तु वह दुष्टा राक्षसी सैन्धवारण्य वासी ब्राह्मणों के अनुरोध से श्रीमाल नगरको बरबाद करनेको फिर भी आगई, और दक्षिण दिशा में किसी ब्राह्मण की कन्याको वेदोके मध्यसे पकड़ के ले जाने लगी । वह कन्या रोती हुई अपनी कुल देवीको रक्षा करनेको पुकारने लगी । उसका रुदन सुनके उसकी कुल देवी 'मुरभि' ने, जो उस जंगल में रहती थी, सारिकाकी गति स्तम्भन कर दी जिससे श्रीपुञ्ज राजा अपनी सेना सहित वहांपर जा पहुँचा और सारिका को मारने के लिये तीर छोड़ने लगा। तब सारिका भयभीत होकर उस कन्या को छोड़ के राजा से कहने लगी।
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