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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी
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पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 225 of 583
ISBN # 81-7628-131-3
v- 2010:002
पुराण - पुरुष हैं और आप पुराण - पुरुषों के वंश में उत्पन्न हुये हो, इसीलिये आप पुरुष हो, श्रेष्ठ के भोक्ता हो, श्रेष्ठ के कर्ता हो, उत्तम विचारों के विचारक हों जिसकी वृत्ति में ओछापन हो, जो दोषों से आच्छादित है, दूसरों को दोषों में लगा रहा है, उसे माँ जिनवाणी पुरुष नहीं, स्त्री कहती हैं
हे पुरुषात्माओ ! जो स्वयं अभक्ष्य का सेवन करता हो, दूसरों को अभक्ष्य खिलाता हो, और अभक्ष्य खानेवालों की अनुमोदना करता हो, उसे पुरुष कैसे कह सकते हो? इस पर्याय को प्राप्त कर जो पुरु (अर्थात् उत्तम) कार्यों को कर सके, संयम की साधना कर सके, उसे पुरुष कहेंगे, इसीलिये तो उत्कृष्ट पर्याय प्राप्त हुई हैं मनुष्यपर्याय का महत्व भोगों से नहीं, मनुष्यपर्याय का महत्व तो संयम से हैं हे पुरुषो! इस भूमि का नाम कर्मभूमि हैं भोगभूमियो का जीव तो भोग भोगता है और नियम से देव बनता है, लेकिन कर्मभूमि का मनुष्य स्वतंत्र होता हैं इस पर्याय से आप भी परमेश्वर बन सकते हो नरकेश्वर भी बन सकते हो और निगोद भी जा सकते हों अब निर्णय आप कर लो कि क्या करना है? यह ध्यान रखना की नारकी निर्णय नहीं कर सकता, क्योंकि वह तपस्या नहीं कर सकतां एक पशु चाहे कि मैं साधु बन जाऊँ, नहीं बन सकतां देव चाहे कि मैं संयमी बन जाऊँ, सिद्धालय चला जाऊँ; नहीं जा सकतां लेकिन आप चाहो तो जा सकते हों
भो ज्ञानी! मोक्षमार्ग पूर्णस्वतंत्र मार्ग है और संसार मार्ग भी पूर्णस्वतंत्र मार्ग हैं इसीलिये ध्यान रखना. कुटुम्ब से पूजा नहीं होती, पिता से पूजा नहीं होती, परिवार से पूजा नहीं होतीं यदि पूजा ही चाहते हो तो तेरी निज परिणति ही तुझे पूज्य बनाती हैं यह भ्रम भूल जाओं अब तो पेट से राजा नहीं बन रहे, पेटी से राजा बन रहे हैं इसलिए मोक्षमार्ग का चुनाव भगवान् नहीं करेंगे चुनाव तेरी भगवान् - आत्मा करेगीं अबुद्धिपूर्वक इष्ट-अनिष्ट हो रहा है, यह तेरा भाग्य हैं बुद्धिपूर्वक इष्ट-अनिष्ट हो रहा है, यह तेरा पौरुष यानि पुरुषार्थ है; लेकिन बिना पुरुषार्थ के कोई अहिंसा-धर्म नहीं चला पायेगां रक्षक - भाव भी पुरुषार्थ है, रक्षा करनेवाला पुरुष हैं जिसके रक्षा करने के भाव नहीं है उसे कभी पुरुष मत कहनां मनीषियो! जीवों की करुणा और जीवों की रक्षा के भाव हीनता - दीनता में नहीं आते, पुरुष में ही आते हैं, शक्तिशाली में आते हैं जो प्राणियों की रक्षा के लिये छत्र के समान खड़ा हो, उसका नाम क्षत्रिय है और उस क्षत्रिय - शासन को जो चलाने वाला हो, वह तीर्थंकर अर्थात् प्रभु हैं जिन्होंने कहा है कि प्राणीमात्र के लिये मेरी छत्रछाया हैं अपने क्षत्रियत्व को जाग्रत करो, अपनी क्षत्रियता को प्रकट करों
हे ज्ञानियो! पुरुषार्थ कहता है - मैं अपना काम नहीं छोडूंगां कर्म का विपाक यदि विधि है, तो संयम का भाव पुरुषार्थ हैं हे चेतन! तेरा धर्म कहता है कि मैं कर्म से डरूँगा नहीं, क्योंकि वह जड़ है, मैं चेतन हैं तू पुरुष है फिर भी तू जड़ से घबरा रहा है? यह मिथ्या भ्रान्ति तो है, लेकिन भ्रान्ति को मिटाना भी तेरा काम हैं भ्रम करें हम और भ्रम भगायें भगवान् ? भो ज्ञानी! ध्यान रखना, जिस भ्रम को जिसने किया है, उस भ्रम को
दूर भी वही करेगा इसीलिये आचार्य भगवान् अमृतचंद्र स्वामी ने अनुपम सूत्र दिया – किसी जीव का घात मत
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