Book Title: Punya Paap Tattva
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Samyaggyan Pracharak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 298
________________ पुण्य-पाप विषयक ज्ञातव्य तथ्य ----- ------- 249 स्वभाव हैं। इन्हें विभाव मानना, स्वभाव न मानना जैन संस्कृति व आगम के विपरीत है। दया, दान, अनुकंपा, वात्सल्य, मैत्री आदि भाव पुण्योपार्जन के हेतु हैं। यदि पुण्योपार्जन को विभाव माना जाय तो उत्कृष्ट पुण्य का उपार्जन क्षपक श्रेणी की उत्कृष्ट साधना से होता है। इससे श्रपकश्रेणि रूप साधना को भी विभाव मानने का प्रसंग उत्पन्न होता है, जो भूल है। अत: दया, दान, करुणा आदि को विभाव मानना आगम विरुद्ध है। मोहनीय कर्म की किसी भी प्रकृति को आगम व कर्म सिद्धांत में प्रशस्त या शुभ या पुण्य रूप नहीं कहा है और न पुण्य का हेतु ही कहा है। अत: राग प्रशस्त नहीं हो सकता। किसी व्यक्ति, वस्तु, गुरु, देव, धर्म के प्रति यदि राग हो तो वह पाप रूप ही होता है, बुरा ही होता है। वह संवररूप होता है। वह प्रमोद किसी बाह्य वस्तु, शरीर आदि के प्रति नहीं होता, अपितु स्वाभाविक गुणों के प्रति होता है। अत: उसे विभाव मानना भूल है। ___पुण्य को पाप के समान हेय या त्याज्य समझना भ्रान्ति है तथा इस भ्रान्ति को प्रश्रय देना पुण्य को त्यागने के लिए प्रेरित करना है, जो भूल है। यह नियम है कि जहाँ पुण्य का अभाव है वहाँ निश्चित रूप से पाप है, क्योंकि शुद्ध भाव व धर्म के साथ पुण्य का उतना ही घनिष्ठ संबंध है जितना काया के साथ छाया का, वस्तु के साथ वर्ण, गंध, रस और स्पर्श का तथा धूप के साथ प्रकाश का।

Loading...

Page Navigation
1 ... 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314