Book Title: Punya Paap Tattva
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Samyaggyan Pracharak Mandal

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Page 10
________________ सम्पादकीय Ix भी पाप की भाँति हेय मान लिया गया। आचार्य कुंदकुंद ने पाप को लोहे की बेड़ी कहा तो पुण्य को सोने की बेड़ी। इस प्रकार पुण्य को भी पाप की भाँति मुक्ति में बाधक समझा गया। पुस्तक के लेखक ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि पुण्य को पाप की भाँति हेय की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है। लेखक का यह मन्तव्य है कि जिस प्रकार मोक्ष की साधना में संवर एवं निर्जरा उपयोगी है, उसी प्रकार पुण्य भी उपयोगी है। लेखक ने पुण्य को तत्त्व के रूप में भी निरूपित किया है तो कर्म के रूप में भी। पुण्य तत्त्व को वे साधना की दृष्टि से उपयोगी मानते हैं तो पुण्य कर्म के उत्कृष्ट अनुभाग को केवलज्ञान के प्रकटीकरण में भी आवश्यक मानते हैं। पुण्य कर्म का उदय केवल ज्ञान की प्राप्ति में कदापि बाधक नहीं हैं, क्योंकि पुण्य कर्म की प्रकृतियाँ अघाती होती हैं, अत: इनसे ज्ञान, दर्शन आदि आत्मा के किसी भी गुण का अंश मात्र भी घात नहीं हो सकता। पुण्य को लेखक ने सर्वार्थसिद्धि में प्राप्त लक्षण ‘पुनात्यात्मानं पूयतेऽनेनेति वा' के अनुसार आत्मा को पवित्र करने वाला स्वीकार किया है। इस संबंध में उन्होंने प्रज्ञापना सूत्र, धवला टीका एवं कर्मग्रन्थों में प्रयुक्त संक्लेश एवं विशुद्धि शब्दों को भी आधार बनाया है। विद्यमान कषाय में हानि (कमी) होना विशुद्धि है एवं उसमें वृद्धि होना संक्लेश है। विशुद्धि की अवस्था में आत्मा में पवित्रता आती है तथा संक्लेश की अवस्था में आत्मा का पतन होता है। अत: श्री लोढ़ा साहब ने विशुद्धि को पुण्य एवं संक्लेश को पाप कहा है। कषाय की मन्दता पुण्य है, एवं मंद कषाय पाप है' नामक लेख में लेखक ने स्पष्ट किया है कि विद्यमान कषायों का कम होना जहाँ पुण्य है, वहाँ अवशिष्ट रहे कषाय तो पाप रूप ही होते हैं। पाप त्याज्य है, पुण्य नहीं, इस तथ्य की पुष्टि आगमों के उन

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