Book Title: Pudgal kosha Part 1
Author(s): Mohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
Publisher: Jain Darshan Prakashan

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Page 755
________________ पुद्गल-कोश ६६३ समीक्ष्य पुस्तक 'लेश्याकोश' में लेखक-द्वय ने बड़ी विशदता, सजगकता एवं सफलता से जैन-वाङ्मय में निहित लेश्या-सम्बन्धी विभिन्न सामग्रियों का संचयन प्रस्तुत किया है, जो लेखक-द्वय की सूक्ष्म शोध-वृत्ति एवं ज्ञानबोध-विस्तृति का ही परिचायक है। जैन दर्शनानुसार लेश्या शाश्वत भाव और अनानुपूर्वी है, क्योंकि लोक, अलोक, ज्ञानादि भाव के समान यह भी चिरन्तन है और इन भावों के साथ लेश्या का आगेपीछे का कोई निर्धारित क्रम भी नहीं है। लेश्या के सहयोग से ही कर्म आत्मा में लिप्त होते हैं तथा कृष्णादि द्रव्यों का सान्निध्य पाकर यह आत्मा के परिणाम को भी उसी रूप में परिवर्तित कर देता है। इसके प्रमुखतः दो भेद ( भाव एवं द्रव्य) एवं कई प्रभेद-उपभेद हैं, जिनके सम्बन्ध में विस्तार के साथ प्रस्तुत पुस्तक में वर्णन किया गया है। साथ ही साथ योग, ध्यान आदि के साथ लेश्या का तुलनात्मक विवेचन भी किया गया है, जो विषय को और अधिक स्पष्ट करने में सहायक है । प्रस्तुत पुस्तक की सामग्रियों के संचयन-संघटन में ३२ श्वेताम्बरीय आगमों एवं तत्त्वार्थसूत्र का सहारा लिया गया है और इनमें उपलब्ध लेश्या सम्बन्धी विभिन्न पाठों को भी मिलान करने का अच्छा प्रयास किया गया है। प्रमुख विषयों एवं विषयान्तर्गत उपविषयों के वर्गीकरण में सार्वभौमिक दशमलव-प्रणाली का उपयोग किया गया है, जिससे विषयों की सहज बोधगम्यता का प्रादुर्भाव अनायास ही हो जाता है। संक्षेप में, यह पुस्तक ज्ञान-पिपासुओं और शोधित्सुओं के लिए निश्चय ही उपयोगी भेद, बारह भिक्षु-प्रतिमाएं और समाधिमरण की दीर्घ चर्चा है। इन व्रतों के प्रतिपादन में साधु के साथ ही साथ साध्वियों के सामान्य आचार का समावेश हो गया है। पुनः श्रमण के विशेष आचार के अन्तर्गत सचेलक और अचेलक, जिनकल्प और स्थविरकल्प सपात्र और करपात्र एवं साध्वी अर्थात् निर्ग्रन्थी के विशेष आचार का प्रतिपादन किया गया है। यूँ तो श्रमण-सार के विभिन्न प्रकार पाये जाते हैं, जिनका आचार अपनी-अपनी सीमा में अलग-अलग ही निर्धारित है। लेकिन यहाँ मुख्यरूप से उक्त साधुओं के विभिन्न आचार-विचारों का ही निदर्शन करना अभीष्ट रहा है। अन्य आचार-विचारों में साम्य रहने पर भी निग्रन्थी अथवा साध्वी के कुछ आचार उनसे भिन्न ही होते हैं, जिनके सम्बन्ध में प्रकाश डाला गया है। चतुर्थ-खण्ड में भी तीन अध्यायों का विधान किया गया है, जिनमें क्रमशः श्रमणसंघ-गच्छ, कुल, गण आदि, निग्रन्थ संघ एवं उनका आचार तथा निग्रन्थी-संघ एवं उनके आचार का वर्णन किया गया है। इस सन्दर्भ में ध्यान रखा गया है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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