Book Title: Pruthvichandra Gunsagar Charitra
Author(s): Raivatchandravijay
Publisher: Padmashree Marketing

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Page 121
________________ पर सर्वत्र सुमित्र की शोध करायी। सुमित्र के नही दिखने पर, पल्लीपति ने दुःख धारण करते हुए गुणन्धर से यह बात कही। पल्लीपति ने निवास स्थान, खान आदि अर्पणकर उसका अत्यंत वात्सल्य किया। इस प्रकार वहाँ पर इष्ट वार्तालाप आदि से गुणन्धर के कितने ही दिन बीत गएँ। पल्लीपति ने उसे सहस्रवेधि महारस देते हुए कहा - निर्मल ऐसे इस रस के लेशमात्र से भी चाँदी, कलाई,तांबा, लोखंड क्षणमात्र में ही स्वर्ण बन जाते हैं। एकदिन पल्लीपति की आज्ञा लेकर, वह वीरशिरोमणि रस की तुंबडी साथ में लेकर कुछ सैनिकों के साथ वीरपुर गया। रात्रि के समय अन्य प्रवृत्ति रहित तथा इष्ट वियोग से दुःखित होते हुए जब वह सार्थ के मार्ग का अवलोकन करते हुए बैठा था, तब अचानक ही एकदिन भूख-प्यास से पीडित और दुर्दशा प्राप्त सुमित्र उसकी नजरों में चढा। वह कपटी गुणन्धर के कंठ में आलिंगन कर रोने लगा। गुणन्धर उसे आश्वासित कर आगे का वृत्तांत पूछा। तब सुमित्र ने कहा - जब तुम निद्राधीन बन गए थे, तब भिलों की घाड पडी थी। भिलों ने मुझे कैद कर लिया था। कभी मौका प्राप्तकर, मैं वहाँ से भाग निकला। तुझे ढूँढते हुए यहाँ पर आया हूँ। आज भाग्य से तेरे दर्शन हुए है। गुणन्धर ने भी पल्लीपति से रस लाभ पर्यंत अपना वृत्तांत कह सुनाया। रस ग्रहण की इच्छा से उस कपटी ने भी कहा - मित्र! रस की तुंबडी किसी स्थान पर छिपाकर, विविध कौतुक देखने के लिए हम दोनों देशांतर में पर्यटन करें। ऐसा निर्णय कर, दोनों विविध बेचने की सामग्री लेकर ताम्रलिप्ती नगर गएँ। वहाँ पर उन दोनों को बहुत लाभ हुआ। ताम्रलिप्ती से जहाज में चढकर, दोनों ने चीनद्वीप की ओर प्रयाण किया। वहाँ से बहुत सामग्री ग्रहणकर, वापिस अपने देश लौटने लगे। समुद्र का बहुतसा भाग पार कर लिया था। तब सुमित्र सोचने लगा - इस गुणन्धर को समुद्र में फेंककर, मैं सर्व संपत्ति का मालिक बन जाता हूँ। ऐसा विचार कर, वह रात्रि के समय उठा। तब देह चिंता के लिए जहाज के अंत में खडे गुणन्धर को देखा। सुमित्र उसे समुद्र में फेंकने लगा। उतने में स्वकर्म के दोष से वह स्वयं समुद्र में गिर पडा। क्योंकि पापीयों को सुख कहाँ से प्राप्त हो सकता है? सुमित्र की यह स्थिति देखकर, गुणन्धर विलाप करने लगा - हा! हा! मेरे मित्र को अकस्मात् यह क्या हो गया है? अत्यंत शोक करने लगा। पश्चात् गुणन्धर वापिस ताम्रलिप्ती में आया। ताम्रलिप्ती नगरी में ज्ञानवान् धमर्षि पधारे हुए थे। उन्होंने गुणन्धर को इस प्रकार प्रतिबोधित किया - वत्स! जिसके लिए तुम दुःखित हो रहे हो, उसके कृत्य के बारे में सुनो। उस कुमित्र ने धन की इच्छा से, तुझ सोये हुए को वन में अकेला छोड गया था। यह तुमको समुद्र में फेंकना चाहता था, किंतु वह स्वंय ही 116

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