Book Title: Pravachansara Anushilan Part 2
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 182
________________ ३५६ प्रवचनसार अनुशीलन द्रव्यकर्म पूर्व द्रव्यकर्मों के साथ स्निग्धता और रूक्षता के आधार पर बंधन को प्राप्त होते हैं । साथ ही उन द्रव्यकर्मों के प्रदेश आत्मप्रदेशों के साथ एक क्षेत्रावगाह रूप से बँधते हैं, प्रकृतिरूप परिणमते हैं, स्थिति के अनुसार ठहरते हैं। और काल पाकर फल देकर चले जाते हैं। इसप्रकार यहाँ प्रदेशबंध, प्रकृतिबंध, स्थितिबंध और अनुभागबंध ये चारों ही बंध घटित हो जाते हैं । इसप्रकार यह सुनिश्चित ही है कि द्रव्यकर्म और भावकर्म में परस्पर निमित्त - नैमित्तिक संबंध है, कर्ता-कर्म संबंध नहीं और आत्मा व द्रव्यकर्मों में मात्र एक क्षेत्रावगाह संबंध ही है। भाई ! ये बननेवाले भगवान की बात नहीं, यह तो बने बनाये भगवान की बात है । स्वभाव की अपेक्षा तुझे भगवान बनना नहीं है, अपितु स्वभाव से तो तू बना-बनाया भगवान ही है ऐसा जाननामानना और अपने में ही जम जाना, रम जाना पर्याय में भगवान बनने का उपाय है। तू एक बार सच्चे दिल से अन्तर की गहराई से इस बात को स्वीकार तो कर; अन्तर की स्वीकृति आते ही तेरी दृष्टि परपदार्थों से हटकर सहज ही स्वभाव-सन्मुख होगी, ज्ञान भी अन्तरोन्मुख होगा और तू अन्तर में ही समा जायेगा, लीन हो जायेगा, समाधिस्थ हो जायेगा। ऐसा होने पर तेरे अन्तर में अतीन्द्रिय आनन्द का ऐसा दरिया उमड़ेगा कि तू निहाल हो जावेगा, कृतकृत्य हो जावेगा। एकबार ऐसा स्वीकार करके तो देख | - आत्मा ही है शरण, पृष्ठ- ८३ प्रवचनसार गाथा १७७-१७८ विगत गाथाओं में यह कहा गया है कि यह जानने-देखनेवाला आत्मा ज्ञेयरूप विषयों को प्राप्त करके मोह-राग-द्वेषरूप परिणमन करता है। उसके ये मोह-राग-द्वेषादि भाव ही भावबंध हैं और उनके निमित्त से द्रव्यकर्म का बंध होता है। अब आगामी गाथाओं में द्रव्यबंध और भावबंध का स्वरूप स्पष्ट कर यह बता रहे हैं कि द्रव्यबंध का हेतु भावबंध ही है। गाथायें मूलतः इसप्रकार हैं फासेहिं पुग्गलाणं बंधो जीवस्स रागमादीहिं । अण्णोष्णमवगाहो पोग्गलजीवप्पगो भणिदो । । १७७ ।। सपदेसो सो अप्पा तेसु पदेसेसु पोग्गला काया । पविसंति जहाजोग्गं चिट्ठति हि जंति बज्झति । । १७८ । । ( हरिगीत ) स्पर्श से पुद्गल बंधे अर जिय बंधे रागादि से । जीव- पुद्गल बंधे नित ही परस्पर अवगाह से ।। १७७ ।। आतमा सप्रदेश है उन प्रदेशों में पुद्गला । परविष्ट हों अर बंधे अर वे यथायोग्य रहा करें ।। १७८ । । स्पर्शों से पुद्गल का बंध, रागादि से जीव का बंध और परस्पर अवगाह को पुद्गलजीवात्मक उभयबंध कहा गया है। आत्मा सप्रदेशी है और उन प्रदेशों में पुद्गल समूह प्रवेश करते हैं और यथायोग्य रहते हैं और बंधते हैं। इन गाथाओं का भाव तत्त्वप्रदीपिका टीका में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - " स्निग्ध- रूक्षत्व स्पर्शविशेषों के साथ कर्मों का एकत्व परिणाम केवल पुद्गलबंध है और मोह-राग-द्वेषरूप औपाधिक भावों के साथ जीव का एकत्व परिणाम केवल जीवबंध है। जीव और कर्मपुद्गल के

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