Book Title: Pravachansara
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 7
________________ प्रवचनसार (कुण्डलिया) जिन प्रवचन का सार यह प्रवचनसार महान | इसके अध्ययन-मनन से प्रगटे आतम ज्ञान || प्रगटे आतम ज्ञान भींग जावे निज अन्तर। निज में ही रम जाय ध्यान जो करे निरन्तर॥ आ जावेगा अन्त अरे उसके भव वन का। और अधिक क्या कहे सार यह जिन प्रवचन का ||४|| (रोला) ज्ञान-ज्ञेय प्रज्ञापन इसमें किया गया है। और आचरण मार्ग निरूपित किया गया है। इन्हें जानकर जीवन इनसे आत्मसात हो। समझ लीजिए तो निश्चित ही आत्म प्राप्त हो ||५|| (दोहा) ज्ञानतत्त्व निज आतमा सब जग जाननहार। ज्ञेयतत्त्व निज-पर सभी इस जग के आधार ||६|| इन दोनों के जान लो सब सामान्य-विशेष। मैं इक आतमराम हूँ पर हैं शेष अशेष ||७|| इसप्रकार इस जगत से करो भेदविज्ञान | वस्तुव्यवस्था समझ कर छोड़ो सब अज्ञान ||८|| (रोला) यह हितकर उपदेश दिया है कुन्दकुन्द ने। यह हितकर आदेश दिया है कुन्दकुन्द ने॥ जो पालेगा इसे वही पा लेगा निज को। पार करेगा वही भयंकर भवसागर को||९|| इसकी ही यह टीका जो हिन्दी भाषा में। तत्त्वप्रबोधिनी लिखी गई है मेरे द्वारा || इसमें मेरा नहीं रंच भी निश्चित जानो। कुन्दकुन्द का माल पूर्णत: इसमें मानो||१०|| कुन्दकुन्द के आलोड़न से साम्यभावना। गहराई से रहे नित्य मेरे जीवन में।। यही भावना मुख्य परन्तु जिनप्रवचन यह। गहराई से समा जाय जन-जन के मन मे||११||

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