Book Title: Pravachansara
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 528
________________ परिशिष्ट : सैंतालीस नय ५२३ यदि अन्योन्याभाव को नहीं मानेंगे तो सभी दृश्यमान (पुद्गल) पदार्थ वर्तमान में एकरूप हो जावेंगे और अत्यन्ताभाव के नहीं मानने पर सभी पदार्थों (द्रव्यों) के त्रिकाल एकरूप हो जाने से किसी भी द्रव्य या पर्याय का व्यपदेश (कथन) भी न बन सकेगा।" इसप्रकार हम देखते हैं कि भाव (अस्तित्व) के समान अभाव (नास्तित्व) भी वस्तु का एक सद्भावरूप धर्म है। यद्यपि नास्तित्वधर्म को परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा समझाया जाता है; तथापि वह पर का धर्म नहीं, भगवान आत्मा का ही धर्म है; उसकी सत्ता का आधार भी पर नहीं, निज भगवान आत्मा ही है। यह नास्तित्वधर्म ही स्व और पर के बीच की अभेद्य दीवार है, इसके कारण ही सभी पदार्थों की स्वतन्त्र सत्ता कायम रहती है, एक द्रव्य दूसरे द्रव्यरूप नहीं होता, एक आत्मा दूसरे आत्मारूप नहीं होता, एक गुण दूसरे गुणरूप नहीं होता, एक पर्याय दूसरी पर्यायरूप नहीं होती; क्योंकि एक का दूसरे में अभाव है। यह अभावधर्म ही भेदविज्ञान का मूल है, देह और आत्मा की पृथक्ता का भान करानेवाला है; अत: इसका स्वरूप जानना अत्यन्त उपयोगी है। भाई ! जबतक नास्तित्वधर्म का स्वरूप हमारे ख्याल में नहीं आवेगा, तबतक पर से भिन्न निज आत्मा की सच्ची पहचान संभव नहीं है। निजभगवान आत्मा की सच्ची पहचान बिना धर्म का आरंभ भी कैसे होगा? नास्तित्वधर्म का सच्चा स्वरूप समझने के लिए जिनागम में प्रतिपादित चार अभावों को गहराई से समझना चाहिए। जिसप्रकार वस्तु के अस्तित्वधर्म को भावधर्म एवं नास्तित्वधर्म को अभावधर्म भी कहते हैं, उसीप्रकार अस्तित्वधर्म को विषय बनानेवाले अस्तित्वनय को भावनय एवं नास्तित्वधर्म को विषय बनानेवाले नास्तित्वनय को अभावनय भी कह सकते हैं। जिसप्रकार भगवान आत्मा के अनन्तधर्मों में एक अस्तित्वधर्म है, एक नास्तित्वधर्म है; उसीप्रकार एक अस्तित्व-नास्तित्वधर्म भी है। जिसप्रकार अस्तित्वधर्म स्वद्रव्य-क्षेत्रकाल-भाव की अपेक्षा से है और वह भगवान आत्मा के अस्तित्व को कायम रखता है, टिकाये रखता है; नास्तित्वधर्म परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा से है और वह भगवान आत्मा को पर से भिन्न रखता है, पर से संपूर्णत: अंसपृक्त रखता है; उसीप्रकार अस्तित्वनास्तित्वधर्म स्वपरद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा से है और वह परस्पर विरुद्ध प्रतीत

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