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धनतेरस का धर्मोपदेश प्रमादी, हिंसक और असंयत मनुष्य मरण काल उपस्थित होने पर फिर किसकी शरण लेंगे?
भगवान् ने कहा-जो मनुष्य पाप करता है, उसे उसका फल अवश्य ही भोगना पड़ता है, क्योंकि किये हुए कर्मो का फल भोगे विना उनसे छुटकारा नहीं मिलता है । इसलिए साधु को चाहिए कि---
चरे पयाइं परिसंकमाणो, जं किचि पासं इह मण्णमाणो।
लाभंतरे जीविय वहइत्ता, पच्छा परिनाय मलावधंसी ॥ पग-पग पर दोपों से भय खाता हुमा और थोड़े से भी दोष को पाप मानता हुआ चले । जब तक शरीर से धर्म-साधन होता रहे और नये-नये गुणों की प्राप्ति होती रहे, तब तक जीवन को पोपण दे । जब देखे कि अब इस देह से धर्म-साधन संभव नहीं है और जीवन का रहना असंभव है, तब विचारपूर्वक इस शरीर का परित्याग कर देवे ।
पांचवें अध्ययन का नाम 'अकाम मरणीय' है। इसमें बताया गया है कि मरण दो प्रकार के होते हैं- सकाम मरण और अकाममरण । भगवान् ने कहा है कि
वालाणं अकामं तु मरणं असई भवे ।
पंडियाणं सकामं तु उक्कोसेण सई भवे ।। विना इच्छा के परवश होकर-मरने को अकामरण कहते है और स्वेच्छा पूर्वक स्वाधीन होकर-मृत्यु के अंगीकार करने को सकामरण कहते हैं । अज्ञानी और मिथ्या दृष्टियों के अकामरण बार-बार अनादि काल से होता चला आ रहा है। किन्तु सकाम मरण पंडितों के-ज्ञानी जनों के उत्कर्पतः एक वार होता है। छठं अध्ययन का नाम 'क्षुल्लक निर्ग्रन्थीय' है । इसमें बतलाया है कि ----
विविच्च कम्मणो हेउं कालखी परिव्वए ।
मायं पिंडस्स पाणस्स कडं लद्ध ण भक्खए । साधु को चाहिए कि वह कर्म के हेतुओं को दूर कर समयज्ञ होकर विचारे । संयम-निवाह के लिए आहार और पानी की जितनी मात्रा आवश्यक हो, उतनी गृहस्थ के घर में सहज निष्पन्न वस्तु प्राप्त कर भोजन करे । इस प्रकार इस अध्ययन में साधु की गोचरी आदि कर्तव्यों को बतलाया गया है।
सातवें अध्ययन का नाम 'उरभ्रीय' है। इसमें एक मेंढ़ा और गाय के बछड़े का दृष्टान्त देकर बतलाया गया है कि जो रसों में गृद्ध होता है, वह मेढ़े के समान मारा जाकर दूसरों का भक्ष्य बनता है। इसका संक्षेप मे कथानक इस प्रकार है