Book Title: Pratima Poojan
Author(s): Bhadrankarvijay, Ratnasenvijay
Publisher: Divya Sandesh Prakashan

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Page 129
________________ इसीलिए उनका कल्याण नहीं हो सकता। इससे सिद्ध होता है कि इच्छा, तृष्णा, आदि पाप के पुद्गल स्वयं के अपने रहते हैं। उसे आप ले-दे नहीं सकते। जो निष्परिग्रही हैं, वे जिस तरह दूसरों के करने से परिग्रही नहीं बनते, उसी तरह वीतराग की भक्ति के निमित्त द्रव्य चढ़ाने से वीतराग, परिग्रही नहीं बन जाते। प्रश्न 46 - दान, शील, तप और भावना, ये चार प्रकार के धर्म हैं। उनमें मूर्तिपूजा किस प्रकार के धर्म में आती है? उत्तर - मूर्तिपूजा में चारों प्रकार के धर्म मौजूद है और वे निम्नानुसार हैं - प्रथम सुपात्र दान धर्म - इसके दो भेद : (1) अकर्मी (कर्मरहित) सुपात्र दान। (2) सकर्मी सुपात्र दान। पात्र भी दो प्रकार के हैं। एक रत्नपात्र तथा दूसरा स्वर्ण पात्र। श्री तीर्थंकर और सिद्ध कर्मरहित, आशा-तृष्णारहित रत्नपात्र हैं। उनको उत्तम पदार्थ अर्पण करना - अकर्मी सुपात्रदान गिना जाता है। दूसरा सकर्मी सुपात्रदान कहलाता है। साधु आठ कर्मों से संयुक्त होते हैं, उनको छह लेश्या भी होती हैं, भूख-प्यास शान्त करने के लिए तथा सर्दी गर्मी को दूर करने के लिए अनेक वस्तुओं के अभिलाषी भी होते हैं। सिद्ध परमात्मा तथा केवली भगवन्तों की तुलना में छद्मस्थ साधु अल्प पूज्य हैं, फिर भी उनको दान देते हुए गृहस्थ पुण्य उपार्जन का महान् लाभ प्राप्त करते हैं तथा धीरे धीरे मोक्ष भी प्राप्त कर सकते हैं तो फिर इच्छारहित, अकर्मी ऐसे श्री सिद्ध भगवान के सामने भावयुक्त उत्तमोत्तम द्रव्य अर्पण करने से आठ सिद्धि, नवनिधि तथा मुक्तिपद की प्राप्ति हो जाती है, इसमें कोई शंका हो नहीं सकती। एक स्थान पर कहा है कि - "देहीति वाक्यं यचनेषु नेष्टं, नास्तीति वाक्यं तत: कनिष्टं । गृहाण याक्थं वचनेषु राजा, नेच्छामि वाक्यं राजाधिराजः ||1|| भावार्थ-किसी वस्तु की याचना करना कि - "मुझे वह वस्तु दो'' यह महा नीच वचन है। वस्तु माँगने पर भी नहीं देना और मना करना, यह उससे भी नीच वचन है। वस्तु सामने लाकर कहना कि 'यह वस्तु लो' - यह राजवचन अर्थात् उत्तम वचन है। और लेने वाला व्यक्ति कहे कि "मेरी इच्छा नहीं है' . यह वाक्य तो राजाधिराज अर्थात् सर्वोत्तम है। अतः इच्छा-तृष्णारहित भगवान शिरोमणि सुपात्र हैं। उनके सम्मुख द्रव्य चढ़ाकर पूजा करते समय प्रथम दान धर्म सरलता से सिद्ध होता है। दूसरा शीलधर्म - पाँचों इन्द्रियों को वश में रखने को शीलधर्म कहते हैं। गृहस्थ जब भावयुक्त द्रव्यपूजा करता है तब पाँचों इन्द्रियाँ संवरभाव को प्राप्त करती है। इससे 122

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