Book Title: Prachin Stavan Jyoti
Author(s): Divya Darshan Prakashan
Publisher: Divya Darshan Prakashan
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[ १११ ]
एजी, देववंदन त्रण काल, मन, वच कायाए कीजीएजी ॥१२॥ उजमणुं शुभ चित्त, करी घरीए संयोगथीजी; जिनवाणी रस एम, पीजीए श्रुत उपयोगथीजी ॥१३॥ इण विवि करीये हो बीज, राग ने द्वेष दूरे करीजी; केवल पद लही तास, वरे मुकित उलट घरीजो ॥१४॥ जिन पुजा गुरु भकित, विनय करी सेवो सदाजी; पद्मविजयनो शिष्य, भकित पामे सुख संपदाजी ॥१५॥
ज्ञानपंचमीका स्तवन ___ सुत सिध्धारथ भूपनोरे, सिधारथ भगवान; बारह परषदा आगले रे, भाखे श्री वर्धमानोरे, भवियण चित्तघरो, मन वचकाय अमायो रे, ज्ञान भगति करो ॥१॥ गुण अनंत आतम तणा रे, मुख्यपणे तिहां दोय, तेहमां पण ज्ञानज वउँ रे, जिणथी देसण होय रे ॥२॥ ज्ञाने चारित्र गुण वधे रे, ज्ञान उद्योग सहाय; ज्ञाने थिपिरपणुं लहेरे, आचारज उवझाय रे ॥भ० ॥३॥ ज्ञानी श्वासोश्वासमां रे, कठिण करम करे नाश, वन्हि जेम इंधण दहे रे, क्षणमा ज्योति प्रकाश रे ॥ भ० ॥ ४॥ प्रथम ज्ञान पछी दया रे, संवर मोह विनाश; गुण ठाणंग पगथालीये रे, जेम चडे मोक्ष आवासो रे ॥ भ० ॥ ५॥ मइ सुअ ओहि मणपज्जवारे, पंचम केवलज्ञान; चउ मुँगा श्रुत एक छे रे, स्वपर प्रकाश निदान रे ।। भ० ॥ ६ ॥ तेहनां साधन जे कहयां रे, पाटी पुस्तक आदि; लखे लखावे साचवे रें, धर्मी धर्म अप्रमादो रे ॥ भ० ॥७॥ त्रिविध आशातना जे करे रे, भणतां करे अंतराय; अंधा बहेरा बोबडा रे, मुंगा पांगुला थाय रे ॥ भ० ॥८॥ भणतां गणतां न आवडे रे, न

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