Book Title: Prachin Jain Itihas Sangraha Part 10
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpmala

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Page 29
________________ (५) कई महा पुरुष (1) अपने शिष्य चाहे योग्य हो या अयोग्य, सदाचारी हो या व्यभिचारी, पटित हो या अपठित हो पर उनको आचार्य श्रादि पदवियों से विभूषित कर अपने आपको इतने आचार्यों का मालिक बनने के मनोरथ को पूर्ण करते हैं। (६) कई लोग एक दूसरे के अवगुण वाद लिखवाने और छपवाने में ही खूब दिल खोल प्रयत्न कर रहे हैं। (७) कई इस बेकारी और आर्थिक संकट के समय भी अपनी मौज, शौक़ और खाने पीने में विचारे गृहस्थों के घरों को बर्बाद करते हैं । उनको यह परवाह नहीं है कि कई जैनों को दोनों बक्त पूरा अन्न भी मिलता है या नहीं पर उनको तो स्वयं के लिए सुबह चाह, दूध, घृत, खाखरा, दोपहर को सेव, संतरा आदि फूट और शाम को दाल भात चाहिए। (८) इन निःस्पृही निग्रंथों ( 1 ) का यदि संग्रह कोष जाकर देखा जाय तो आश्चर्य हुए बिना कदापि नहीं रहेगा क्योंकि इतना विशाल संग्रह शायद साधारण गृहस्थों के भी नहीं मिलता है । क्योंकि इनको कोई कमाई करने को तो कहीं जाना है नहीं, केवल "धर्म लाभ" कहने मात्र से ही सर्व पदार्थ मिल जाय तो फिर कमी क्यों रखी जाय। ___इत्यादि, इस कर्म कहानी को कहाँ तक लिखा जाय । हजारों बार लल कार-फटकार लगाई गई परन्तु इन मठपतियों से मठः नहीं छूटता है तथा एक प्रान्त से दूसरे प्रान्त में जाने की भी हिम्मत नहीं होती है यही कारण है कि ऐसे पतितों से समाज शख्त विरोध करता है और इनसे अब धर्म की उन्नति होने के लिए समाज हाथ धो बैठा है अर्थात् इन मायावी पुरुषों से धर्मो

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